श्री शिव महापुराण कथा छव खंड अध्याय 14



ब्रह्मा जी ने कहा हे नारद जब 18 दिन आया तो राजा देवदास नित्य कर्म से निर्मित होकर गणपति जी द्वारा बताए गए ब्राह्मण की बात देखने लगा उसी दिन मध्यकाल में विष्णु जी ब्राह्मण का स्वरूप बनाएं हुए अन्य कई ब्राह्मणों को अपने साथ लिए अग्नि के समान तेज धारण कर उसके पास जा पहुंचे राजा ने जब दूर से उन्हें आते हुए देखा तो यह समझकर अत्यंत प्रसन्न हुआ कि वही उपदेश करने वाले ब्राह्मण चले आ रहे हैं वास्तु राजा ने अगवानी कर उन्हें प्रणाम किया दादू प्राणों से अपने अंतर में ले जाकर पूजन भजन तथा सेवन के उपरांत अत्यंत सामान पूर्वक श्रेष्ठ आसन पर बैठाया एवं उत्तम मनोरथ वस्तु भेंट देखकर उसकी अनेक प्रकार से स्तुति प्रशंसा करते हुए इस प्रकार करने लगा राजा बोला है महात्मा मैं कुछ दिनों से बहुत दुखी रहा करता हूं इस दुख का कारण मेरी समझ में नहीं आता आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं जिसके करने से मेरे मन का दुख दूर हो और आनंद की प्राप्ति हो इसी चिंता में मुझे एक मानस का समय व्यतीत हो गया है परंतु मेरा कष्ट कुछ भी दूर नहीं हुआ है इतना कह कर राजा देवदास ने अपने राज पालन प्रताप ब्राह्मणों की सेवा आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन किया फिर कहा हे प्रभु मुझे अपने दुख का कारण यह जान पड़ता है कि मैं अपने तपोवल के गर्भ में भरकर सभी देवताओं को दृढ़ के समान समझा है आप मेरी यह दशा है कि मैं जिन लोगों को आनंद पूर्वक भोग हुए ही मुझे रोक के समान प्रतीत होते हैं वैसे तो वह यह नियम है कि यदि मनुष्य एक कल्पित भी जीवित रहे तो भी लोगों से तृप्त नहीं होता परंतु मेरी अभी से यह दशा हो गई है कि मुझे राज चलाना चक्की चलाने के समान भर स्वरूप लगता है आज तो आप कृपा करके ऐसा कोई उपदेश कीजिए जिससे मैं इसका आवागमन के चक्कर से छुड़ाऊंगा मैं आपकी शरण में आया हूं आप जो भी उपदेश मुझे करें उसमें श्रद्धा पूर्वक अवश्य स्वीकार करना मुझे आपके दर्शनों से अत्यंत आनंद प्राप्त हुआ है आप मुझे वास्तविक आनंद प्रदान करने की कृपा करें हे प्रभु मुझे यह भी अनुभव होता है कि देवताओं से विरोध करके आज तक किसी ने आनंद प्राप्त नहीं किया है राजा बलि तिरुपुर वृंदा शोर अपराध दधीचि तथा सहस्रबहुवादी की कथाएं इसका परिणाम है परंतु मुझे देवताओं के विरुद्ध का इसलिए कोई उपाय नहीं है कि मैं ब्राह्मण की सेवा करके अत्यंत सम्मान पाओ जी प्रशंसा को देवताओं ने यज्ञ जब तक आदि द्वारा प्राप्त किया है उसकी प्रशंसा को मैं ब्राह्मण की सेवा द्वारा सहज ही प्राप्त कर लिया है अस्तु ब्राह्मणों का कृपा पात्र होने के कारण मैं देवताओं से किसी भी प्रकार काम नहीं हो आप मेरी यह इच्छा है कि आप मुझे उचित उपदेश देकर आवागमन से छुड़ा दे

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Brahma Ji said, O Narada, when he came on the 18th day, King Devdas, after completing his daily chores, started listening to the Brahmin told by Ganpati Ji. On the same day, in the middle of the day, Vishnu Ji, taking the form of a Brahmin, along with many other Brahmins, wearing the brightness of fire, reached near him. When the king saw them coming from afar, he was very happy to understand that the same Brahmins who preach are coming. King Vastu welcomed them and bowed down. After taking Dadu into his heart with all his heart and after worshipping and consuming him, he made him sit on the best seat with great respect and after seeing the best object of desire, he started praising him in many ways. The king said, O Mahatma, I have been very sad for some days. I do not understand the reason for this sadness. Please tell me some such solution by which the sadness of my mind can be removed and I can get happiness. I have spent a lot of time in this worry, but my pain has not gone away at all. Saying this, King Devdas described in detail his kingdom's upkeep, glory, service of Brahmins etc. Then said, O Lord, I have to know the reason of my sadness. I have considered all the gods as strong by keeping them in the womb of my penance. My condition is such that the people whom I have enjoyed happily, seem like a hindrance to me. Though the rule is that even if a man lives for an imaginary life, he is not satisfied with people, but my condition has become such that to me running a kingdom seems like running a mill. Today, please give me such advice that will free me from the cycle of birth and death. I have come to your refuge. Whatever advice you give me, please accept it with devotion. I have got immense joy by your darshan. Please be kind enough to give me real joy. O Lord, I also feel that no one has got joy till date by opposing the gods. The stories of King Bali, Tiruppur, Vrinda, Shore, Aparadh, Dadhichi and Sahasrabahuwadi are the result of this, but I have no way to go against the gods because I get immense respect by serving Brahmins. The praise that the gods have received through yagya etc., I have easily received that praise by serving Brahmins. Being the recipient of the blessings of the Brahmins, I do not have any need of the gods. My only wish is that you free me from the cycle of birth and death by giving me proper advice.

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