ब्रह्मा जी ने कहा हे नारद जब बाणासुर ने अपनी सेवा के बाल में कमी देखी तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ और सिंहनाथ करता हुआ श्री कृष्ण जी के सामने आकर घर युद्ध करने लगा श्री श्याम सुंदर ने अपने धनुष पर अनेक बार चढ़ा कर वनसुर के ऊपर चलाएं परंतु वनसुर ने भी उसके सब वाहनों को काटते हुए अपने बलों द्वारा उन्हें चारों ओर से ढक दिया जिस समय कुम्भांड ने अपने प्रहारों द्वारा यदुवंशी सी को विचलित कर दिया उसे समय बलराम जी ने अपने हाल मुसल द्वारा कमान के मस्तक को हिलाने की चेष्टा की या देखकर कुमार ने बलराम जी के हृदय पर अपने त्रिशूल का प्रहार किया और उन्हें मुर्जिद करके पृथ्वी पर डाल दिया हे नारद गरुड़ जी ने भीरान क्षेत्र में लड़ने लगे उनके पंख पहाड़ों से व्याकुल होकर देश की सेवा युग क्षेत्र से भागने लगी यह देखकर वनसुर अपने त्रिशूल द्वारा गरुड़ को मूर्छित करके पृथ्वी पर गिरा दिया कुछ देर पहचान जब करूं की मस्जिद टूटी तो फिर वह क्षेत्र से भाग गया था दो प्रणवाड़ा शुरू हुआ श्री कृष्ण जी में इस प्रकार का गौर युद्ध होने लगा की संपूर्ण संसार में आकर मच गया उसे युद्ध में दोनों और से इतनी बाहर चले कि जिसे संपूर्ण आकाश भर गया हे नारद का दो प्रांत वाला सुनने श्री कृष्ण जी के साथ और युद्ध आरंभ किया तब श्री कृष्ण चंद्र जी ने अपनी वहां वर्ष द्वारा वरना और के रथ के घोड़े को मार गिराया फिर उन्होंने एक बड़ा ऐसा छोड़ो कि उनके लगते ही बाणासुर घायल हो पृथ्वी पर गिर गया और मुर्जित को गया कुछ देर बाद जब उसे हुआ तब हुआ त्रिशूल हाथ में लेकर श्री कृष्ण जी से फिर युद्ध करने लगा उसने अपने त्रिशूल द्वारा श्री कृष्ण जी को बहुत दुख पहुंचा तब श्री कृष्ण जी ने अपने वाहनों से उसके त्रिशूल एवं गधा को काट दिया तथा उसके आने शास्त्रों को भी व्यवहार कर दिया यह देखा वर्णन सुनने श्री कृष्ण जी के धनुष को काट डाला तब श्री कृष्ण जी ने शिव जी के शराब का स्मरण करते हुए बाणासुर को पकड़ लिया और अपने चक्र द्वारा उसकी संपूर्ण भुज को काट डाला केवल चार भुजाएं शेष रहने दे शिव जी की कृपा से वाराणसी भुज के काटने का दुख नहीं हुआ उसके सभी भाव तुरंत भर गए हे नारद उसे समय श्री कृष्ण जी का क्रोध इतना बड़ा की उन्होंने वनसुर के मस्ताक्स को काट डालने की इच्छा प्रकट की यह जानते ही इसी श्री शिव जी जो एक और सोए हुए पड़े थे तुरंत जग पड़े और श्री कृष्ण जी की घर क्रोध पूर्वक देखते हुए इस प्रकार कहने लगे हैं कृष्णा हमने जो आज्ञा दी थी उसे तुम पूरी कर चुके अब आनासुर के मस्ताक्स को मत काटो तुम्हें ज्ञात होगा कि तारक तथा रावण पर जब तुमने यह चक्र चलाया था उसे समय यह निष्फल सिद्ध हुआ था क्योंकि वह दोनों हमारे भक्त थे इसलिए हमारे भक्त तुम्हारा सुपर तुम इतना क्रोध मत दिखाओ और इसके साथ प्रेम संबंध स्थापित करके उषा संहिता अमरुद को अपने घर ले जाओ तथा हमारा स्मरण करते रहो शिवजी प्लीज आ गया को श्री कृष्ण जी ने स्वीकार कर लिया तब शिव जी ने वर्णसुर तथा श्री कृष्ण जी से मित्रता स्थापित कर दिए पत्ता दो प्राणवरण सुनने अनुरोध के साथ गुस्सा का विवाह कर दिया और श्री कृष्णा बलराम आदि सभी लोगों को दान से संतुष्ट किया तब सभी ऋतियां संपन्न हो जाने पर श्री कृष्ण जी अनुरोध और उषा को साथ ले मनसूर से विदा हो अपने नगर में जा पहुंचे वाराणसी शिवजी का घर बनाकर द्वितीय पद त्याग देवता हुआ
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Brahma Ji said, O Narada, when Banasura saw the deficiency in his service, he became very angry and came in front of Shri Krishna Ji making a lion-like roar and started fighting. Shri Shyam Sundar mounted his bow several times and swung it at Banasura, but Banasura, cutting all his weapons, covered him from all sides with his arms. When Kumbhand disturbed the Yaduvanshi with his attacks, at that time Balram Ji tried to shake the head of the bow with his Hal-Musal. Seeing this, Kumar struck Balram Ji's heart with his trident and made him fall on the ground. O Narada, Garuda Ji started fighting in the Bhiran area. His wings became restless from the mountains and the warriors of the country started running away from the Yug area. Seeing this, Vanasura made Garuda unconscious with his trident and threw him on the ground. After some time, when the battle broke, he ran away from the area. Two Pranawada started. Such a fierce battle started between Shri Krishna Ji that the whole world came and got agitated. There was so much fear from both sides in the war. He went that the whole sky was filled with the two provinces' words. Hearing Narada's two provinces' words, he started a war with Shri Krishna. Then Shri Krishna Chandra ji killed the horse of Banasura's chariot with his sword. Then he shot a big shot such that as soon as it hit him, Banasura got injured and fell on the earth and went to Murjit. After some time when he came to his senses, he started fighting with Shri Krishna again with his trident in his hand. He hurt Shri Krishna a lot with his trident. Then Shri Krishna ji cut his trident and ass with his weapons and also destroyed his weapons. After hearing this description, he cut Shri Krishna's bow. Then Shri Krishna ji, remembering Shiv ji's wine, caught hold of Banasura and cut all his arms with his chakra. Only four arms remained. By the grace of Shiv ji, Banasura did not feel any pain on the cutting of the arms. All his emotions were filled immediately. Hey Narada, at that time Shri Krishna's anger was so great that he expressed his desire to cut off Banasura's head. On knowing this, Shri Shiv ji who was lying asleep on one side, woke up immediately. He fell on the bed and looking at Shri Krishna angrily he started saying, Krishna, you have fulfilled what we ordered you to do, now do not cut the head of Anasur. You will know that when you had used this chakra on Tarak and Ravan, that time it proved futile because both of them were our devotees, therefore, your devotee is our devotee, do not show so much anger and establish a loving relation with him, take Usha Samhita guava to your home and keep remembering us, Shivji please come, Shri Krishna accepted it, then Shivji established friendship with Varnasur and Shri Krishna, got Usha married with Anuradha on hearing the leaf of Pranavaran and satisfied all the people like Shri Krishna, Balram etc. with donations. Then after all the rituals were completed, Shri Krishna took Anuradha and Usha along with him, left Mansoor and reached his city, Varanasi, and after making Shivji's home he became the second Pada Tyaag Devta.
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