श्री शिव महापुराण कथा तृतीय खंड अध्याय 30 का भाग 2



हे नारद गिरिजा ने कहा ही तपस्वी आपका मत यह है कि पुरुष प्राकृतिक से पृथक रहता है परंतु मैं कहती हूं कि प्राकृतिक के बिना पुरुष कभी नहीं ठहर सकता इस संसार में जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है वह सब प्राकृतिक का स्वरूप है प्राकृतिक जड़ तथा चेतन को अपने वास में रखती है आपकी समझ में तो पुरुष और प्रकृति अलग-अलग है परंतु मेरे समझ में पुरुष प्राकृतिक से मिला-जुला है क्योंकि कहना सुनना तथा तपस्या करना आदि सब कार्य माया के रूप है जो पुरुष माया से अलग है उसे तो तपस्या करते समय किसी के द्वारा विभिन्न डालने जाने का भाई होना ही नहीं चाहिए गिरजा कैसे वचन सुनकर शिवजी बोल ही गिरजे तुम्हारी यह बुद्धि केवल अपने मन से उत्पन्न की हुई है जिसे केवल अनुमानित ही कहा जा सकता है तुम्हें यह ज्ञान या जान लेना चाहिए की ब्रह्म सबसे श्रेष्ठ है माया कभी स्वाधीन नहीं है क्योंकि वह जड़ होती है यदि तुम्हें ऐसे अहंकार है कि माया और ब्रह्मा एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते तो तुम ब्रह्मा को रोक क्यों नहीं लेते हो इतना कह कर शिवजी चुप हो गए तब हिमाचल शिवजी की स्तुति करने के उपरांत अपने घर को लौट गए परंतु गिरजा को सखियों सहित वहीं छोड़ गए इस बार शिवजी ने भी उनसे यह आगरा नहीं किया कि वह गिरजा को लौटा ले जाए वस्तु गिरजा प्रतिदिन अपनी सखियों सहित शिवजी की सेवा करने लगी हुई 1 से अनेक प्रकार के पुष्प आदि तोड़कर लेट और शिवजी का पूजन किया करती थी परंतु शिव जी का चित्र किसी भी प्रकार चलाएं मानना हुआ हे नारद गिरजा अपने मन में विचार किया करती थी कि शिवजी मुझे किस समय स्वीकार करेंगे उधर शिवजी अपने मन में यह सोचते थे कि यदि मैं गिरजा को इस समय ग्रहण का लूं तो इसे अपने मां में बहुत अहंकार हो जाएगा इसलिए इसके अतिरिक्त तीनों लोक में मेरी निंद भी होगी क्योंकि उसे समय लोग यह कहेंगे कि शिव जी ने काम के आवेश में गिरजा को स्वीकार कर लिया वास्तु जब गिरजा मेरे लिए बहुत तपस्या करेगी तब मैं इसके मनोरथों को पूर्ण करवाऊंगी या निश्चय कर शिवजी ध्यान में मग्न हो गए इस समय तारक नामक दैत्य के द्वारा दुखी होकर सब देवता मेरे शरण में आए तब मेरे कहने से इंद्र ने कामदेव को बुलाकर शिवजी को उपवास में करने के लिए उसे हिमालय पर्वत पर भेजो इंद्र की आज्ञा मानकर कामदेव शिव जी के पास गया परंतु वहां उसकी क्रोध अग्नि में पढ़कर भस्म हो गई उसे समय तीनों लोक में आकर मचा गिरिजा ने वैन में जाकर बहुत तपस्या की और शिवजी ने प्रसन्न होकर उसे अंगिरा कर कर लिया

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O Narad Girija said, "Ascetic, your opinion is that man is separate from nature, but I say that man can never survive without nature. Whatever is visible in this world is the form of nature. Nature keeps the living and the non-living in its abode. In your understanding, man and nature are different, but in my understanding man is mixed with nature because all the activities like speaking, listening and doing penance are forms of Maya. The man who is separate from Maya should not be subjected to any interference by anyone while doing penance. Hearing the words of Girija, Shivji said, "Girja, this intelligence of yours is only created by your mind, which can only be called an estimate. You should know that Brahma is the best. Maya is never independent because it is inert. If you have such ego that Maya and Brahma cannot stay separate from each other, then why don't you stop Brahma?" After saying this, Shivji became silent. Then Himachal returned to his home after praising Shivji, but left Girija there along with her friends. This time Shivji also told her this Agra He did not think that he should take Girja back. Girja, along with her friends, started serving Lord Shiva everyday. She used to pluck various kinds of flowers from her and worship Lord Shiva. But she did not like to take the picture of Lord Shiva in any form. Girja used to think in her mind that when will Lord Shiva accept her. On the other hand, Lord Shiva used to think in his mind that if he accepts Girja at this time, then she will become very arrogant towards herself. Therefore, apart from this, I will also be criticized in all the three worlds because at that time people will say that Lord Shiva accepted Girja in the heat of lust. When Girja will do a lot of penance for me, then I will get her wishes fulfilled. Having decided, Lord Shiva got engrossed in meditation. At this time, all the gods, being troubled by the demon named Tarak, came to me for refuge. Then, on my saying, Indra called Kaamdev and sent him to the Himalayas to make Lord Shiva fast. Obeying Indra's order, Kaamdev went to Lord Shiva, but there he was burnt to ashes by burning in the fire of anger. He created havoc in all the three worlds. Girija went to Van and did a lot of penance and Lord Shiva became pleased with her and accepted her as his own.

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