श्री विष्णु पुराण कथा पांचवा स्कंद अध्याय 33 का भाग 2


इस घोर युद्ध के उपस्थित होने पर देवगणों ने समझा कि अवश्य किया समस्त जगत का पर लेख हाल आ गया है प्रभु श्री कृष्ण जी ने जनों कस्तर छोड़ जिससे शिव शंकर नियंत्रित से होकर जमाई लेने लगे उसी की ऐसी दशा देख-देखे और प्रथम गण चारों ओर भागने लगे प्रभु शिव शंकर निंद्रा भूत होकर रात के पिछले भाग में बैठ गए और फिर न्यास ही अद्भुत कम करने वाले श्री कृष्ण जी से युद्ध न कर सके फिर घरों द्वारा वाहन के नष्ट हो जाने से प्रद्युमन के शास्त्रों से पीड़ित होने से तथा श्री कृष्ण जी के ओंकार से शक्तिहीनता हो जाने से कार्तिकेय भी भागने लगे इस तरह श्री कृष्ण जी द्वारा प्रभु शिव शंकर के निद्रा भूत देते सेवा के नष्ट कार्तिकेय के पराजित और शिव गानों के छड़ी को जाने पर कृष्णा प्रद्युम्न और बलराम जी के साथ युद्ध करने के लिए वहां वनसुर साक्षात नदी शाखा द्वारा हाथ के जाते हुए रथ पर चढ़कर आया उसके आते ही वीर पराक्रमी पर राम जी ने अनेकों बानो की वर्षा करवाना और की सेवा को तीतर भीतर कर दिया वाराणसी ने देखा कि उसकी सेवा को बहुत पतली के साथ बलराम जी हाल से खींच खींचकर मुसलसल से मार रहे हैं और कृष्णा जी से वाहनों से भीड़ डालते हैं तब बाणासुर का श्री कृष्ण के साथ भीषण युद्ध छिड़ गया हुए दोनों परस्पर कवचविवेदी बढ़ छोड़ने लगे लेकिन प्रभु जुड़े हुए बालों को अपने बालों से काट डाला और फिर वाराणसी कृष्ण को तथा कृष्णा वनसुर को दिखाने लगे उसे समय परस्पर चोट करने वाले वनसुर और श्री कृष्ण दोनों ही विजय की इच्छा से शीघ्रता पूर्वक अस्त्र-शस्त्र छोड़ने लगे फिर अंत में समस्त वाहनों के चिन्ह और समस्त अस्त्र शस्त्रों के निष्फल हो जाने पर प्रभु श्री कृष्ण जी ने वाराणसी को मार डालने का विचार किया फिर प्रभु श्री कृष्ण जी ने सैकड़ो सूर्य के समान प्रकाशमान अपने सुदर्शन चक्र को हाथ में ले लिया जिस समय प्रभु श्री कृष्ण जी वनसुर का श्रृंगार करने के लिए सुदर्शन चक्र छोड़ना ही चाहते थे उसी समय देते क्योंकि विद्या कोठारी प्रभु श्री कृष्ण के सम्मुख नग्न अवस्था में आ गए उसे देखते ही प्रभु ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वाराणसी को लक्ष्य करके उसे शत्रुओं की भुजाओं के वनों को काटने के लिए सुदर्शन चक्र छोड़ दिया प्रभु के छोड़े हुए उसे चक्र ने वर्णसुर की दो भुजाएं छोड़कर समस्त भुजाएं कर दे तब प्रभु शिव शंकर भी जान गए कि प्रभु श्री कृष्णा जीवाणु सुख बहुवां को काटकर अपने हाथ में लाए हुए चक्र को उसका वध करने के लिए छोड़ना चाहते हैं अतः वनसुर को अपने खंडित भोज डंडा से लहू की धारा बातें देख श्री उमापति ने प्रभु श्री कृष्ण जी के पास आकर कहा प्रभु श्री शिव शंकर जी बोले हे कृष्ण ही जगन्नाथ मैया जानता हूं कि आप पुरुषोत्तम परमेश्वर पर महात्मा और आदि अनंत से रहित प्रभु श्री हरि हैं आप स्वर्ग होता है माय है जो देव तिलक और मनुष्य आदि योन में शरीर धारण करते हैं यह आपकी इस स्वाधीन चेष्टा की उपलक्षित का लीला ही है हे प्रभु आप प्रसन्न होंगे मेन इस बाद और को अभय दान दिया है हे नाथ मैंने जो वचन दिया है उसे आप मिथ्या ना करें यह अभी आए यह आपका अपराधी नहीं है यह तो मेरा आश्रय पानी से इतना ग्वालिन हो गया है इस डेथ दिया वनसुर हो मैं ही वरदान दिया था इसलिए मैं ही आपसे इसके लिए क्षमा करता हूं श्री पाराशर जी बोले त्रिशूल धारी प्रभु उमापत्ते शंकर के इस प्रकार कहने पर प्रभु श्री कृष्ण ने वाराणसी के प्रति जो उसके मन में और प्रसन्न होकर शिव शंकर से कहा श्री कृष्ण जी बोले ही शिव शंकर यदि आपने ही से वरदान दिया है तो यह हमारा सूर्यवित रहेगा उसके वचन का मन रखने के लिए मैं सुदर्शन चक्र को रोक देता हूं आपने जो अभय दिया है वह सब मैने भी दे दिया है शिव शंकर आप अपने को मुझे सर्वस्त्र अभी भी देखो आप यह वाली प्रकार समझ लें कि जो मैं हूं वह आप है तथा यह समस्त संसार देव असुर और मनुष्य आदि कोई भी मुझसे भी नहीं है वृषभ ध्वज में प्रसन्न हुआ हूं आप पधारिए मैं भी अब जाऊंगा श्री पाराशर जी बोले यह कहकर प्रभु श्री कृष्ण जी वहां प्रदुमन कुमार अनुरोध थे वहां गए उसके वहां पहुंचते ही अमरूद के बंधन रूप समस्त नगर गरुड़ के विवेक से उत्पन्न हुए वायु प्रहार से नष्ट हो गए फिर संतृप्त अमरुद को गरुड़ पर चढ़कर बलराम प्रद्युम्न और प्रभु श्री कृष्ण जी द्वारिका पुरी में लौट गए

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On the appearance of this fierce war, the gods thought that it was necessary that the fate of the entire world has come, Lord Shri Krishna ji left everyone's kastar and started taking the son-in-law under the control of Shiv Shankar. Seeing his condition like this, the first four gods Lord Shiv Shankar started running away and sat down in the last part of the night in the form of a sleeping ghost and then due to his inability to fight with Shri Krishna ji, who was doing wonders, then due to the destruction of the vehicle by the houses, due to being afflicted by the scriptures of Pradyuman and Shri Kartikeya also started running away after becoming powerless due to Lord Krishna's Omkar. In this way, Kartikeya was defeated by Lord Shiva by giving ghost of sleep to Lord Shiva and after losing the stick of Lord Shiva, Krishna went to fight with Pradyumna and Balaram. As soon as he arrived, Vanasura came there mounted on a chariot passing by the river branch, Ram ji showered many rains on the brave man and sent the pheasant inside Varanasi to serve him. Balram ji saw that his service was very thin. Pulling them out of the hall, hitting them hard and crowding Krishna ji with vehicles, then a fierce fight broke out between Banasur and Shri Krishna. Both of them started leaving each other's armor but the Lord cut off the entangled hair with his hair and then went to Varanasi. Started showing it to Krishna and Krishna to Vanasura, both Vanasura and Shri Krishna, who were attacking each other at that time, quickly left their weapons with the desire of victory, then finally when all the signs of vehicles and all weapons became ineffective, Lord Shri Krishna Ji thought of killing Varanasi, then Lord Shri Krishna ji took his Sudarshan Chakra in his hand which was as bright as hundreds of suns. At the time when Lord Shri Krishna ji wanted to leave Sudarshan Chakra to adorn Vansur, he gave it at that very moment because Vidya Kothari came in front of Lord Shri Krishna in a naked state. On seeing him, the Lord closed his eyes and aiming at Varanasi, he left Sudarshan Chakra to cut down the forests of the enemies' arms. After the Lord left him, the Chakra took the form of Varnasura. Leaving two arms, he folded all the arms, then Lord Shiv Shankar also came to know that Lord Shri Krishna wants to cut the bacteria Sukh Bahuvan and release the Chakra in his hand to kill her, hence, Vanasura started talking to Vanasura with a stream of blood from his broken Bhoj Danda. Seeing, Shri Umapati came to Lord Shri Krishna and said, Lord Shri Shiv Shankar ji said, O Lord Krishna, Jagannath Mother, I know that you are the Mahatma on the Supreme God and Lord Shri Hari, who is devoid of the beginningless and infinite, you are heaven, my mother, the one who has Dev Tilak and Human beings take on bodies in various forms. This is your leela in celebration of this independent endeavor. O Lord, you will be pleased. After this, I have given fearlessness to others. O Lord, do not make false promises that I have given. This has come now, this is yours. He is not a criminal, he has become such a cowherd in my shelter, this death has given me a forest, I was the one who had given me the boon, hence I am the one who forgives you for this. Shri Parashar ji said, Lord Shri Krishna said on trident wielding Lord Umapatte Shankar saying this. He became more happy in his heart towards Varanasi and said to Shiv Shankar. Shri Krishna Ji said, 'Shiv Shankar, if you have given me the boon, then this will be our sun, to keep his word in mind, I stop the Sudarshan Chakra. I have given you fearlessness, I have also given all that, Shiv Shankar, you see yourself in me, fully dressed, you should understand in this way that whatever I am, you are me and this whole world of gods, demons and humans etc. is not even me. Taurus Flag I am happy, you come, I will also go now, Shri Parashar ji said, saying this, Lord Shri Krishna ji was present there and Praduman Kumar went there. As soon as he reached there, the entire city in the form of guava was destroyed by the air blow generated by the discretion of Garuda. Balram Pradyumna and Lord Shri Krishna returned to Dwarika Puri by carrying the saturated guava on Garuda.

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