श्री विष्णु पुराण कथा दूसरा स्कंद अध्याय 8

सूर्य नक्षत्र और राशियों का प्रबंध तथा कालचक्र लोकपाल और गंगा का आविभाव



श्री पराशर जी बोले हे सुब्रत अब तुम सूर्य आदि ग्रहों की स्थिति तथा उसके परिणाम सुनो हे मुनि श्रेष्ठ सूर्य देव के रथ का विस्तार नाम हजार योजन है उसका जुआ औरत के बीच का भाग ईशा 10 अट्ठारह हजार योजन है उनका अधूरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन लंबा है जिसमें की रथ का पहिया लगा हुआ है तीन नाभिया पुरवा मध्य एवं वराह रूप 5 अरे परी आचार्य आदि तथा छवि वेल शरद ऋतु ऋतु स्वरूप स्वरूप शैलपुत्री चक्र में संपूर्ण कालचक्र स्थित है 73 ही उनके घोड़े हैं उनके नाम गायत्री विद उसने जगदीश रिपोर्ट्स अनूप पोस्ट और पंथी है यह सचिंद्र ही सूर्य के घोड़े कहे जाते हैं भगवान सूर्य देव के रथ का दूसरा अधूरा सा है 45000 योजन लंबा है दोनों दोन के समान ही उनके युक्ति का आकार है छोटा अधूरा उसके एक युवती सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है एवं दूसरे ध्रुव का चक्र मानसरोवर पर्वत पहाड़ पर स्थित है इस मानसरोवर पर्वत के पूर्व दिशा में इंद्र की दक्षिण दिशा में यानी कि पश्चिम दिशा में वरुण की और उत्तर दिशा में चंद्रमा की पूरी है उन फूलों के नाम इस प्रकार है इंद्र की पूरी वाक्य एवं एवं कि श्यामली है वरुण की सूखा है तथा चंद्रमा की विभावरी है यह मैथिली ज्योतिष चक्र के शहीद प्रभु सूर्य दव दक्षिण दिशा में प्रवेश कर छोड़े गए बाण के समान तीव्र वेग से चलते हैं प्रभु सूर्यदेव दिन और रात की व्यवस्था के कारण हैं और राग आदि कालेजों के सिम खो जाने पर वे प्रभु सूर्य देव की योजना के देवयान नामक श्रेष्ठ मार्ग है हे मैथिली सभी दीपों में सर्वदा मध्य तथा मध्य रात्रि के समय सूर्य देव मध्य आकाश के मैं सामने ही और रहा करते हैं इस तरह उदय और अस्त भी सदैव एक दूसरे के सम्मुख ही हुआ करते हैं हे ब्राह्मण समस्त दिशा और विदेशों में जहां के लोग रात्रि का अंत होने पर सूर्य को जिस स्थान पर देखते हैं वही उसका उदय समझते हैं एवं जहां दिन के अंत में सूर्य का तिरोभाव होता है वही उसका अर्थ मान लिया जाता है सदैव एक रूप से स्थित सूर्य देव का नाम उदय होता है और ना अस्त होता है केवल सूर्य देव का देखना और ना देखना ही उनका उदय और अस्त है सूर्यदेव उदय होने के बाद मध्य में अपनी बढ़ती हुई कि लोगों से ताकत और उसके पश्चात क्षण होते हुए किरणों से अस्त हो जाते हैं सूर्य देव के उदय और अस्त होने से ही पूर्व तथा पश्चिम दिशा में दिखाई जाती है वैसे वास्तव में तो वह जिस प्रकार पूर्व दिशा में प्रकाश करते हैं उसी तरह हुए पश्चिम तथा उत्तर एवं दक्षिण दिशा में भी प्रकाश करते हैं सूर्यदेव सुमेरु पर्वत के ऊपर स्थित श्री ब्रह्मा जी की सभा के अतिरिक्त अन्य सभी स्थानों को भी प्रकाशित करते हैं उनकी जो किरण ब्रह्मा जी की सभा में जाती है हुए उसके देश से निरर्थक होकर वासी क्लाउड आती है सुमेरु पर्वत संपूर्ण दीपों तथा वर्षों के उत्तर में स्थित है इसलिए उत्तर दिशा में मेरु पर्वत पर सदैव एक और दिन और दूसरी और रात होती है रात्रि के समय सूर्य अस्त हो जाने पर उनका तेज अग्नि में प्रवेश कर लेता है अतः उस समय अग्नि दूर से ही प्रकाशित होने लगती है

TRANSLATE IN ENGLISH 

Management of sun constellation and zodiac signs and appearance of Kalachakra Lokpal and Ganga

Mr. Parashar ji said, O Subrata, now you listen to the position of the sun and other planets and its results. He has 73 horses, his name is Gayatri Vid, he has Jagdish reports, Anoop Post and Panthi. This is Sachindra, the horse of the sun. The second incomplete part of Lord Surya Dev's chariot is 45,000 Yojanas long. Both are similar in size. Varuna's and Moon's puri in the north direction are as follows: Indra's full sentence and Shyamali is Varuna's dry and Moon's Vibhavari. This Maithili Astrologer's Martyr Lord Surya Dev enters the south direction and moves with great speed like an arrow released. During the night, the Sun God remains in front of the middle of the sky and in the same way, rising and setting are always opposite to each other. O Brahmins, in all directions and abroad, where people see the Sun at the end of the night, they consider it to be rising, and where the sun disappears at the end of the day, it is taken to mean. It is visible in the East and the West only when the sun rises and sets. In fact, just as it shines in the east, in the same way it shines in the west and in the north and south. Sun God illuminates all other places except the gathering of Shri Brahma ji situated on the top of Sumeru mountain. It is located in the north of the year, so there is always another day and another night on Mount Meru in the north. When the sun sets at night, its glory enters the fire, so at that time the fire starts to shine from a distance.

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