श्रीमद् भागवत कथा पुराण दसवां स्कंध अध्याय 84

श्रीमद् भागवत कथा पुराण दसवां स्कंध अध्याय 84 आरंभ

वासुदेव जी का यज्ञ करना



 है राजन श्री कृष्ण चंद्र के प्रेम में मुक्त होकर जिस घड़ी द्रोपति रुक्मणी श्रद्धा मात्रा आदि परम पर बात कर रही थी भगवान के चरणों के दर्शन करने की अभिलाषा से वेदव्यास देवर्षि नारद वशिष्ठ परशुराम सनकादिक अंगिरा अंग्रेज तुलसा यज्ञ वासना चौहान आदि ऋषि आए उन्हें देखकर भगवान श्री कृष्ण ने दंडवत प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहने लगे हे ऋषि जान आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया ऋषि यों के दर्शन देवताओं के समान होते हैं उन्हें आदर पूर्वक आसन पर बिठाने के उपरांत गुनाह करने लगे हैं तपस्वी तुम सबके जब तक के कारण पृथ्वी से पाप का भार कम हो जाता है अन्यथा देवी पृथ्वी पापियों के भार को सहन नहीं कर पाती धर्म और मर्यादा के रक्षक भगवान श्री कृष्ण चंद्र जी की मधुर वाणी सुनकर देवर्षि नारद जी बोले हैं स्वामी तीनो लोक के नाथ धन्य भाग्य हमारे हैं जो आप के दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुआ आप सांसारिक प्राणियों को उपदेश करने के लिए और सही मार्ग बस लाने के लिए हम सभी विषयों की महिमा स्थापित की है हे श्यामसुंदर हम सभी योगी जनों का कल्याण कर आपके चरण कमल का ध्यान करने से होता है मिट्टी और पत्थर की मूर्ति देवता नहीं बन जाते अथवा तीर्थ स्थानों पर जाकर स्नान करने से पापियों के पाप नहीं छूट जाते बल्कि उन पवित्र स्थान पर जाकर प्राणी आपकी स्वरूप का सच्चे मन से ध्यान करता है जिससे उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं हे परमपिता परमेश्वर अपने भक्तों की पीड़ा दूर करने और पापियों का संघार करके पृथ्वी का भार हरण करने हेतु परंपरागत अवतार लेते हैं उसी समय वासुदेव जी खड़े होकर ऋषि मुनि के सम्मुख हाथ जोड़कर करने लगे एक ज्ञानी महात्माओं ऐसा कोई उपाय बताओ जिससे मैं भवसागर से पार उतर जाऊं हे परीक्षित वासुदेव के वचनों को सुनकर नारदजी हंसते हुए बोले हैं वासुदेव जी जिस के पुत्र के स्वरूप में स्वयं त्रिलोकीनाथ ने अवतार लिया हो राठौर पर उसके सम्मुख रहते हो उस प्राणी के भाव से पार होने के लिए किस तरह का उपाय करने की कोई आवश्यकता नहीं है हम योगी जानवरों कठिन तपस्या करने के उपरांत एक बार प्रभु के चरण कमल का दर्शन करके भाव बांदा बाधा से मुक्त हो जाते हैं और तुम महान भाग्यशाली हो जो नित्य प्रतिदिन दर्शन करते हो वासुदेव यज्ञ पुरुष भगवान वासुदेव की ही यज्ञ में पूजा होती है फिर भी आपकी अभिलाषा है जो कुरुक्षेत्र में यज्ञ करके उसका फल श्री कृष्ण चंद्र को प्राप्त कर दो जिससे तुम भाव बंधन से मुक्त होकर परम पद प्राप्त करोगे नारद जी के वचन को सुनकर वासुदेव जी का हाथ जोड़कर कहने लगे हैं देवर जी आपने यज्ञ करने की सलाह देकर मेरे हृदय को शांत किया उसी प्रकार यही अट्ठारह का यज्ञ पूरा करा दें तो आपकी बहुत कृपा होगी नाराजगी और अंग्रेजों ने वासुदेव की कथन को स्वीकार किया था तत्पश्चात उन्होंने हवन सामग्री लेकर शुभ मुहूर्त में यज्ञ कार्य संपन्न कराए हे राजन यज्ञ कार्य निर्मित पूर्ण होने के उपरांत वासुदेव जी ने ब्राह्मण तथा या झुको को बहुत सावधान स्वर्ण मुद्राएं एवं हजारों कुए की सीमाओं में स्वान मटकर दान किया उनकी स्त्रियों ने ब्राह्मण या चोवादी को प्रेम पूर्वक बिठाकर उत्तम भोजन कराएं समस्त कार्य संपन्न होने के उपरांत श्री कृष्ण चंद्र जी यशोदा और नंद राज के निकट जाकर कहने लगी हे मैया हे बाबा मैं आपसे एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होना चाहता किंतु विवश हूं अतः आप ही वृंदावन जाकर आनंद पूर्वक रहे मेरे हृदय में सदैव आप सब का स्मरण रहेगा उस समय श्री कृष्ण चंद्र के मुंह से ऐसी बात सुनकर यशोदा जी व्याकुल होकर रोने लगी उनके नेत्रों से अश्रु धारा बहने लगे उनके ह्रदय की अधीरता देखकर मुरली मनोहर उन्हें समझाते हुए कहने लगे हे मैया सुख-दुख हानि लाभ जीवन मरण यश सभी विधाता ने रास्ता है अतः प्राणियों को प्रबंध अनुसार संतोष करना होता है इस समय नेटवर्क नागर माता यशोदा को समझा रहे थे उसी समय उसके द्वारिका पुरी जाने का समाचार सुनकर राधा रानी उसके निकट आई और करते हुए कहने लगे हे प्राण प्रिय एक बार हम सभी ग्रुपों को त्यागकर मथुरा गए तो हमारी सुधि नहीं ली कि हम जीवित भी हैं या नहीं अब आए हो तो फिर छोड़ कर जा रहे हो तुम्हारे बिना हमारी क्या गति होगी हमारी आंखें सदैव तुम्हारे मार्ग को देखती है किंतु तुम्हें कि क्या तुम तो निर्माण हो हम स्त्रियों के मन की पीड़ा ही नहीं समझते उस घड़ी श्री कृष्णा ने अपनी योग माया से राधारानी और गोपियों की बुद्धि को घुमा दिया जिससे वह ब्रज वापस जाने के लिए तैयार हो गए तत्पश्चात उन्हें ब्रज वासियों को बहुत सा धन वस्त्र आभूषण हाथी देकर प्रेम पूर्वक विदा किया है परिचित भगवान श्री कृष्ण चंद्र की माया अपरंपार है जो प्राणी सच्चे मन से उनके चरणों का ध्यान करता है उसकी समस्त बाधाएं सोता हट जाती है और परम पद को प्राप्त होता है तुम अपनी हिरदे में भगवान वासुदेव के चरणों का ध्यान करो

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Shrimad Bhagwat Katha Purana Tenth Canto Chapter 84 Beginning

perform the yagya of vasudev ji

 Being liberated in the love of Rajan Shri Krishna Chandra, the moment when Draupati, Rukmani, Shraddha Matra, etc. was talking about Param, with the desire to see the feet of God, Vedvyas, Devarshi, Narada, Vashishtha, Parshuram, Sankadik, Angiras, English, Tulsa, Yagya, Vasana, Chauhan, etc. sages came seeing them. Shri Krishna bowed down and with folded hands said, O Rishi, I am blessed to have your darshan. The darshan of Rishis is like that of deities. The burden of sin is reduced by this, otherwise Goddess Earth cannot bear the burden of sinners. After listening to the sweet voice of Lord Shri Krishna Chandra Ji, protector of religion and dignity, Devarshi Narad ji has said, O lord of all the three worlds, blessed is our fortune that you Received a rare vision, you have established the glory of all subjects to preach to the worldly beings and to guide them on the right path, O Shyamsundar, by meditating on your lotus feet, we do welfare of all yogis God does not become Or by going to pilgrimage places and taking bath, the sins of the sinners are not removed, but by going to those holy places, the creature meditates on your form with a true heart, by which all his sins are destroyed. In order to take away the burden of the earth, Vasudev ji stood up and folded his hands in front of Rishi Muni and said, O Parikshit, Naradji laughed listening to Vasudev's words. It has been said that Vasudev ji, in the form of whose son Trilokinath himself has incarnated but Rathore lives in front of him. Seeing the lotus feet of the Lord many times, the person becomes free from bondage and you are very fortunate who visit every day. Fruit Shree Krish Get the moon, by which you will be free from bondage and attain the supreme position. After listening to Narad ji's words, Vasudev ji started saying with folded hands, brother-in-law, you have calmed my heart by advising me to perform the yajna, similarly this is the eighteen yajna. If you get it done then you will be very kind. Donated gold coins and swans in the borders of thousands of wells, their women made Brahmin or Chowadi sit with love and fed them good food. After completion of all the work, Shri Krishna Chandra ji went near Yashoda and Nand Raj and started saying, Mother, Baba, I am with you. I don't want to be separated even for a moment, but I am helpless, so you go to Vrindavan and live happily. I will always remember you all. stream flows Seeing the impatience of her heart, Murli Manohar started explaining to her, O mother, happiness-sorrow, loss, gain, life, death, fame, everything is the way of the Creator, so the creatures have to be satisfied according to the arrangements. Hearing the news of his going to Dwarka Puri, Radha Rani came near him and said, "Dear Pran, once we left all the groups and went to Mathura, then did not care whether we were alive or not. If you have come now, then you are leaving again." Ho, what will be our speed without you, our eyes always look at your path, but whether you are a creation, we do not understand the pain of women's mind, at that moment Shri Krishna turned the intellect of Radharani and Gopis with his yoga illusion, due to which He got ready to go back to Braj, after that he was given a lot of money, clothes, ornaments and elephant to the residents of Braj and sent him away with love. goes away and attains the supreme position You meditate on the feet of Lord Vasudev in your heart.

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