श्रीमद् भागवत कथा पुराण दसवां स्कंध अध्याय 57 आरंभ
इस मयक मणि की चोरी और सत्रजीत की मृत्यु का वृतांत
हे राजा दुर्योधन के कपट पूर्ण व्यवहार से पांडव पुत्र सदैव सुख रहे थे वह किसी ना कोई उपाय करके उन्हें मार डालने का प्रयास करता रहता था एक बार उसने एक सेल्फी को बुलाकर लाखा भवन बनवाया और पांडवों को उस में ठहरा कर उसे आग लगा दिया हे राजन कुंती सहित पांडवों का लाख की हर में जलकर भस्म हो जाने का समाचार पाकर उसकी सुधि लेने के लिए श्री कृष्ण एवं पर रामजी हस्तिनापुर गए और उस समय अक्रूरजी और कृतवर्मा ने सत्य धैर्य से जाकर कहा यह सत्य धर्म सत्रजीत की पुत्री सद्भावना का विवाह हो ना तुम्हारे साथ निश्चय हुआ है किंतु अब सत्राजित का दुर्व्यवहार देखो उसने सद्भावना का विवाह श्री कृष्णा से करके तुम से उपेक्षित किया है इससे तुम्हारी जग हसी होगी इस समय बहुत उत्तम अवसर है क्योंकि श्री कृष्णा और बल भद्र हस्तिनापुर अपने बुआ से मिलने गए अतः तुम सत्रजीत से अपना बदला ले लो अक्रूर और प्रीत हुआ के वजन को सुनकर मन बुद्धि श्रद्धा रिया ने विचार किया कि यह उचित बात कर रहे हैं सत्रजीत ने मेरा पार किया है इस तरह विचार कर वह अर्धरात्रि को सत्रजीत के घर पहुंचे और सोते हुए खतरा जी को मार डाला और स्मारक मणि और रत्न आभूषण लेकर चला आया सत्रजीत की मृत्यु देखकर उसकी पुत्री सद्भावना करुणा विलाप करने लगी और हाय पिताजी हाय पिताजी के स्वर का उच्चारण करते हुए मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर गई तत्पश्चात जब उसे होश आया तो वह रख पर सवार होकर हस्तिनापुर जा पहुंची हे राजन सद्भावना को हस्तिनापुर में देखकर सब कुछ जानते हुए अंतर्यामी भगवान श्री कृष्णा जी आश्चर्य प्रकट करते हुए उसके आगमन का कारण पूछने लगे तब सद्भावना भी गलती हुई कहने लगी है स्वामी श्रद्धालुओं ने रात में सोते समय मेरे पिता को मार डाला और अपने अपने साथ ले गया जब तक आप उस ना धाम का वध नहीं करेंगे तब तक मेरे को शांति नहीं मिलेगी यह कह कर वह हिचकी ले ले कर रोने लगी तब भगवान श्री वासुदेव से धीरज मांगते हुए बोले हे प्रियतम धैर्य धारण करो 30 दूसरा ने तुम्हारे पिता का वध किया है अभी लाकर उसका वध करता हूं यह का करो रथ पर सवार होकर द्वारिकापुरी पहुंचे हे परीक्षित साथ धैर्य को जब ज्ञात हुआ कि श्री कृष्णा और 12 मुझे मारने के लिए द्वारिकापुरी वापस आ गए तब वह अत्यंत बहादुर होकर अक्रूर और कृतवर्मा की शरण में जाकर कहानी लगाइए अक्रूर जी तुम्हारे कहने पर मैंने सत्रजीत को मारा अब मेरी प्राण संकट में है तुम मेरी रक्षा करो इस प्रकार वह दुहाई देने लगा तब आकृति बोले अरे मूर्ख भगवान श्री कृष्ण त्रिलोकीनाथ में संपूर्ण सृष्टि का सृजन एवं विनाश करना उसके लिए खेल है भला कौन मूर्ख होगा जो उससे बेरमो लेगा तुमने बिना सोचे विचारे अनुचित कार्य किया है उसका दंड हुए अवश्य देंगे इस घड़ी तू यहां से चला जा उनसे तेरे प्राणों की रक्षा करने वाला संपूर्ण जगत में कोई नहीं है तब वह बोला हे अक्रूर तुम्हारे कहने पर ही मैंने सत्रजीत को मारा आप मुझे असहाय छोड़ रहे हो सब धारूआ के वचन को सुनकर अक्रूरजी गंभीर स्वर का उच्चारण करके खाने लगे एक सतघरवा इस बात का विचार तुम्हें पहले ही करना चाहिए था तब 70 वा ने इस महामारी को अक्रूर जी के पास भूमि पर रखकर स्वयं अपने प्राण बचाने के लिए भाग चला रात में जुड़े तीव्र गंगा में घोड़ों को वह चाबुक से मार मार कर दौड़ाने लगा उसे भागते देख श्री कृष्ण और बलराम जी अपने रथ पर सवार हो उसके पीछे दौड़ते और उसे घेर लिया तब वहां रात से उठकर पैदल ही भागने लगा श्री कृष्णा जी उसे पैदल भागते देख अपने रात से उतरकर पैदल ही उसके पीछे दौड़ने लगे और मिथिलापुरी के निकट जाकर पकड़ लिया और उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र का स्मरण किया हे राजा परीक्षित ही स्मरण करते ही अग्नि में सुदर्शन चक्र कर उसकी उंगली पर नाचने लगी तब श्री कृष्णा जी उसके हाथ को छोड़ते हुए कहा अरे सतघरवा तूने मेरी अनुपस्थित में सत्रजीत का बात करके स्मारक मणि की चोरी करने का प्राप्त किया है तेरा यह अपराध अक्षय है यह कह कर उन्हें सुदर्शन चक्र को उसका सिर काटने का आदेश दिया है राजन श्री कृष्ण के हाथ से छूट कर सतबरवा भागने लगा किंतु सुदर्शन ने पल भर में उसका सिर काट दिया किंतु मणि उसके पास नाम मिली तक निराश होकर श्री कृष्ण जी लौटे और बलभद्र जी के निकट जाकर कहने लगे दाऊ भैया सत्य धनवा के पास गाड़ी नहीं थी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह हमारी द्वारिकापुरी में ही रह गई किंतु उसकी बात सुनकर बलराम जी को विश्वास ना वह हुए अपने मन में विचार ने लगे कि अवश्य ही कन्हैया के मन में कपट भाव उत्पन्न हो गया है इसलिए मणि पा कर भी मुझे मिथ्या वचनों का उच्चारण कर रहे हैं वह हमारी सद्भावना को देना चाह रहे हैं तब वे कृष्णा से कहने लगी हे कन्हैया तुम द्वारिका चलकर मणि ढूंढो और मैं जनकपुरी देखने जा रहा हूं यह कह कर वह मिथिला जनकपुरी को ही निकल आते हैं चले और श्री कृष्णा जी द्वारकापुरी लौट आए राम जी के आगमन का समाचार प्राप्त हुए सभा सदस्यों एवं मंत्रियों सहित स्वयं जाकर उसकी अगवानी की और आदर सत्कार सहित राजमहल में आए हे राजन जनकपुर मेवाराम जी के आने का समाचार जब दुर्योधन को प्राप्त हुआ तो वह रथ पर सवार होकर वहां गया और उसके निकट जाकर प्रणाम करते हुए हाथ जोड़कर विनती वर्क कहने लगा मेरे अहोभाग्य जो आपका दर्शन मुझे प्राप्त हुआ है यह भावना भगवान मेरी बहुत दिनों से यह इच्छा थी कि आपका शिष्य बंद कर मैं आपको गदा युद्ध की विद्या सीखूं आपने यह पधार कर बहुत बड़ी कृपा की अब दया करके मुझे अपना शीश शिवकुमार कर गदा युद्ध की विद्या का ज्ञान प्रदान करें दुर्योधन के बिना पूर्वक वचनों को सुनकर बा राम जी प्रसन्न हो या गधा युद्ध की शिक्षा में लगे उधर श्री कृष्णा जी द्वारा द्वारिकापुरी पहुंचे तो सद्भावना उसके निकट आकर कहने लगी है स्वामी सत्य धर्म व कुमार करिश्मा कुमारी लाने गए थे वह मणि दिखाइए नहीं देती ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे भगाने के लिए आपने वस्तुओं के नीचे छुपा रखा है सद्भावना की बात सुनकर श्री मुरली मनोहर गंभीर होकर बोले हे प्रिय तुमने दिए हुए वजन के अनुसार 77 को मात्र किंतु मणि उसके पास से नहीं मिली उस समय सत्यभामा अपने मन में विचार करने लगी मणि बलराम जी को देकर मुझे झूठ बोल रहे हैं प्रत्यक्ष में वह चुप बनी रही अंतर्यामी भगवान उसके मन की बात जान गए किंतु उसी घड़ी स्मारक मणि पोला हर्षद मामा को नहीं दिखा सकते थे क्योंकि उसी घड़ी उसके भाई से भयभीत होकर सत्य धर्म भागने लगा उसी समय उसे मणि आकूर जी को दे दिया ठाकुर जी श्री कृष्णा से भाई भी था क्योंकि सत्रजीत को मारने के लिए उन्होंने सतबरवा को प्रेरित किया था अतः बावड़ी लेकर याद चले गए इधर जब श्री कृष्णा जी और मणि का कलंक लगा तो अपनी माया से द्वारिका पुरुष एक आदमी था पानी बरसा ना सूखा पड़ जाना रोग दुर्भाग्य विद आने लगी द्वारिकापुरी में दही दही मच गई हे राजन वहां के भजन एक दिन श्रीकृष्ण के पास जाकर कहने लगी हे प्रभु अब क्या करें पानी ना बरसने से फसल सूख रही है रोग महामारी से बच्चे बूढ़े जवान शहीद हो रहे हैं आपने सदैव हमारी रक्षा की है हे प्रभु हमारे दुखों का निवारण करो तब श्री कृष्णा जी बोले हे बंधु जनों अक्रूर जी के ना रहने से यह भी पता है रही है अतः आप सब जाकर ने सम्मान पूर्वक ले आए तब वह सब कहने लगे हे भगवान ठाकुर जी आप से भयभीत होकर वह आपके ही बुलाने पर आएंगे हे राजा परीक्षित वृद्धजनों की कहानी के पश्चात श्री कृष्णा जी कहां तुम लोग उन्हें तलाश करो जब वह मले तो उससे कहना कि यदि मेरे प्रति भक्ति ही रखते हैं तू अपने मन में सायं का त्याग कर तुरंत चले आओ तत्पश्चात कुछ यदुवंशी उन्हें ढूंढने के लिए चल पड़े और ढूंढते ढूंढते झांसी जा पहुंचे उसी समय गया से चलकर अक्रूर जी कल ही आ गए थे उनसे मिलकर यदुवंशियों ने श्री कृष्णा का संदेश में कहा श्री कृष्ण का संदेश पाखरा कुर्जी प्रसन्न मुख होकर के साथ द्वारिकापुरी आए हे राजन गुरु जी के आगमन पर श्री कृष्ण जी उसके निकट गए और उसे प्रणाम करके कहने लगे हैं चाचा जी श्रद्धालुओं ने भागते समय स्मारक मणि आपको दीदी कृपा करके वह अपने आप सब लोगों को दिखला दीजिए जिससे दाऊ भैया और सद्भावना आदि का संदेश मिट जाए अन्यथा यह लोग यही विचार थे रहेंगे की मणि को मैंने कहीं छिपा दिया है तब श्री कृष्णा जी के वचन को सुनकर अक्रूर जी वह मणि निकाल कर उन्हें दे दी तब भगवान ने सब को वह मणि दिखाते हुए कहा की मणि के लिए कभी भी मैं लालच नहीं किया फिर भी इसके कारण मैं कलंकित होता रहता है चाचा जी आप इसे अपने पास रखे तत्पश्चात हरि कथा श्रवण सुन रहे कर रहे राजा परीक्षित ने सुखदेव जी से पूछा है महात्मा अक्रूर जी ज्ञानी पुरुष थे फिर भी सत्य दरवा को अनुचित सलाह क्यों दिए तथा यह भी बताने की कृपा करें राजा कंस के द्वार में रहने वाले अक्रूर जी इतने बड़े ज्ञानी कैसे हुए तब सुखदेव जी बोले हे राजन् एक बार काशी नगर में आधार पर गाया हुआ के प्राणी मरने लगे उसी समय भगवान श्री नारायण का परम भक्त फलक नामक मोनू से वहां पहुंचा हुआ जाति का एक था उसके पहुंचते ही वर्षा होने लगी और काशी नगरी की प्राणी सुखी हो रही हो गई तब काशी नरेश ने अपनी कन्या का विवाह शुभ अलग से कर दिया कनसी नरेश की कन्या और शुक्ला के संगत से अक्रूर जी की उत्पत्ति हुई इसी कारण है धर्मात्मा हुए और अंत में प्रभु श्री कृष्ण की प्रेरणा से उन्हें सत्रजीत को मारने के लिए सत्य धर्म लाभ उठाया जिससे अक्रूर जी के गुण नष्ट हो गए हे राजन भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन सुनने वाले प्राणी के युद्ध में सदैव श्री नारायण निवास करते हैं और उसकी प्राणी को परम गति प्रदान करते हैं
TRANSLATE IN ENGLISH
Shrimad Bhagwat Katha Purana Tenth Skandha Chapter 57 Beginning
The story of the theft of this Mayak gem and the death of Satrajit
O King Duryodhana's deceitful behavior, the Pandava sons were always happy, he used to try to kill them by taking some way or the other. After receiving the news of the Pandavas being burnt to ashes in the lacquer along with Rajan Kunti, Shri Krishna and Par Ramji went to Hastinapur to take care of him, and at that time Akrurji and Kritvarma went with true patience and said that this truth should be the marriage of Sadbhavna, daughter of Sathya Dharma Satrajit. I have not decided with you, but now look at Satrajit's misbehavior, he has neglected you by marrying goodwill to Shri Krishna, this will make you laugh, this is a very good opportunity at this time because Shri Krishna and Balabhadra Hastinapur went to meet their aunt, so you Take your revenge on Satrajit. Hearing the weight of Akrur and Preet Hua, Shraddha Riya thought that this is the right thing to say. Killed and took commemorative gem and gemstone jewelery Seeing the death of Satrajit, his daughter Sadbhavna started mourning Karuna and while uttering the voice of hi father, hi father, fainted and fell on the earth, after that when she regained consciousness, she reached Hastinapur riding on the rakh, O Rajan Sadbhavna to Hastinapur. Seeing in me, knowing everything, Lord Krishna ji expressed surprise and started asking the reason for his arrival, then goodwill has also started saying that Swami devotees killed my father while sleeping in the night and took him with them till you By saying that I will not get peace till then I will not kill that abode, she started crying after taking a hiccup, then asking Lord Shri Vasudev for patience and said, dear dear, have patience 30 The second one has killed your father, now he has brought him. I kill you and reach Dwarkapuri on a chariot, O Parikshit, when patience came to know that Shri Krishna and 12 had come back to Dwarkapuri to kill me, then he became very brave and went to the shelter of Akrur and Kritavarma and set the story Akrur ji with you. I killed Satrajit on saying Now my life is in danger, you protect me in this way, he started crying out, then the figure said, oh foolish Lord Shri Krishna, creating and destroying the entire creation in Trilokinath is a game for him, who would be a fool who would take cruelty from him, you unreasonable without thinking You will surely be punished for the work you have done, at this moment there is no one in the whole world to protect your life from them, then he said, O Akrur, I killed Satrajit only at your behest, you are leaving me helpless, all of Dharua's Hearing the word, Akrur ji started eating with a serious voice, you should have thought of this thing earlier, then 70th kept this epidemic near Akrur ji on the ground and ran away to save his life himself. When he started running the horses with a whip, seeing him running, Shri Krishna and Balram ji rode on their chariot, ran after him and surrounded him, then got up from the night and started running on foot, Shri Krishna ji seeing him running on foot. He got down and started running after him on foot and went near Mithilapuri. He caught it and remembered his Sudarshan Chakra, O King Parikshit, he started dancing on his finger with Sudarshan Chakra in the fire. You have received the crime of stealing, saying that this crime is inexhaustible, he has ordered Sudarshan Chakra to cut off his head. Disappointed till he got the name, Shri Krishna ji returned and went near Balabhadra ji and said that Dau Bhaiya, Satya Dhanwa did not have a car. Thoughts started in my mind that definitely a deceitful feeling has arisen in Kanhaiya's mind, so even after getting the gem, he is uttering false words to me, he is trying to give our goodwill, then he started saying to Krishna, O Kanhaiya, you are Dwarka. Go find the gem and say that I am going to see Janakpuri, that myth The villagers come out to Janakpuri only, and Shri Krishna ji returned to Dwarkapuri, received the news of Ram ji's arrival, along with the members and ministers himself went and received him and came to the palace with respect, O Rajan, when the news of the arrival of Mevaram ji in Janakpur When Duryodhana got it, he rode on a chariot and went there and, bowing near him, with folded hands he started praying and saying, "I have received your darshan, this feeling of my good fortune, Lord, it was my wish for a long time that I should close your disciple." Let me learn you the knowledge of mace warfare, you have come here and have a lot of grace, now please give me your head Shivakumar and give me the knowledge of mace warfare, without Duryodhana's prior words, should Ram ji be pleased or engage in the teachings of donkey warfare there. When Shri Krishna ji reached Dwarkapuri, Sadbhavna started coming near him and said that Swami Satya Dharma and Kumar Karishma had gone to bring Kumari, she does not show the gem, it seems thatTo drive me away, you have hidden under the things, listening to the goodwill, Mr. Murli Manohar said with seriousness, oh dear, according to the weight given by you, only 77 but the gem was not received from him, at that time Satyabhama started thinking in her mind, Mani Balram Giving me a lie, she remained silent in reality, God knew her mind, but could not show the memorial Mani Pola to Harshad Mama at the same time, because at that very moment the true religion started running away from her brother in fear. Mani was given to Akur ji. Thakur ji was also brother to Shri Krishna because he had inspired Satbarwa to kill Satrajit, so he took the stepwell and went away in memory. Tha water did not rain or dry up, disease started coming with misfortune, curd curd started coming in Dwarkapuri, O Rajan, the hymns there one day went to Shri Krishna and said, Lord, what to do now the crop is drying up due to lack of water, children old and young due to disease epidemic Being martyred, you have always protected us, O Lord, in our sorrows Solve it, then Shri Krishna ji said, oh brothers, it is also known that Akrur ji is not there, so all of you went and brought it with respect, then all of them started saying, oh Lord Thakur ji, being afraid of you, he called on your own. O King Parikshit will come after the story of the old people, Shri Krishna ji, when you find them, then tell him that if you have devotion towards me, you leave the evening in your mind and go immediately after that some Yaduvanshi to find them They went and went to Jhansi in search of Jhansi, at the same time Akrur ji had come from Gaya only yesterday, meeting him, Yaduvanshis said in the message of Shri Krishna, Pakhara Kurji, the message of Shri Krishna, came to Dwarkapuri with a happy face, O Rajan on the arrival of Guru Ji. Shri Krishna ji went near him and saluted him and started saying uncle ji, while running away, please show the memorial gem to all the people, so that the message of Dau Bhaiya and goodwill etc. is erased, otherwise these people will remain the same thoughts. That I have hidden the gem somewhere, then after listening to the words of Shri Krishna ji, Roor ji took out that gem and gave it to them, then God showed that gem to everyone and said that I have never been greedy for the gem, yet because of this I keep getting tarnished, uncle, keep it with you and then listen to Hari Katha Shravan King Parikshit, who is living, has asked Sukhdev ji, Mahatma Akrur ji was a wise man, yet why did he give inappropriate advice to the door of truth and also please tell how Akrur ji, who lived in the door of King Kansa, became such a wise man then Sukhdev ji Said, O Rajan, once sung on the basis of Kashi city, the creatures started dying, at the same time, the supreme devotee of Lord Shri Narayan was one of the caste who reached there by the name of Falak. Then the Kashi king married his daughter in an auspiciously separate marriage, Akrur ji was born from the company of Kanasi king and Shukla, this is the reason why he became virtuous and in the end, with the inspiration of Lord Shri Krishna, he had to kill Satrajit. Taken advantage of which the qualities of Akrur ji were destroyed, O Rajan, please listen to the description of Lord Krishna's pastimes. Shree Narayan always resides in the battle of the creature and gives the ultimate speed to his creature.
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