श्रीमद् भागवत कथा पुराण सातवां स्कंध अध्याय 10 आरंभ
पहलाद का राजतिलक एवं तिरुपुर राक्षसों का वध नारद जी बोले हैं युधिष्ठिर भगवान नरसिंह के वचन सुनकर पहलाद जी बोले यह दीनदयाल सांसारिक सुख सदैव स्थिर नहीं रहता एक दिन उसका भी नाश हो जाता है और आप सांसारिक सुख का वरदान देकर जन्म मरण के ब्लू में लुप करना चाहते हैं जबकि मैं बीसी हो हमसे दूर रहकर आपकी निर्मल भक्ति चाहता हूं मैं आपकी निस्वार्थ भाव से सेवा करने वाला सेवक आप मुझ पर प्रसन्न होकर मेरी समस्त कामनाओं को पूर्ण करना चाहते हैं किंतु मैं यह चाहता हूं कि मेरी सभी कामनाएं नष्ट हो जाए सीधे में कामना उत्पन्न होने से धर्म धैर्य लालच एवं बुद्धि किनारा कर जाता है है प्रभु तीनो लोक के रात से तुम कोई वस्तु नहीं होती लेकिन वह भी स्थिर नहीं रहता फिर किस लिए आपसे भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए किसी वस्तु की मांग करूं मेरी इच्छा है कि ऋषि मुनि तथा साधु महात्माओं का सत्संग मुझे दिन-रात प्राप्त हो और पल भर के लिए भी आपका नाम ना बोलो इसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए प्रभु कुछ नहीं चाहिए यह कह कर पहलाद प्रेम शुभ आते हुए बार-बार नरसिंह भगवान की विनती करने लगा तब नरसिंह भगवान बोले हे पुत्र पहलाद तू मेरा परम भक्त है तुझे किसी वस्तु की कामना नहीं है फिर भी मेरी आज्ञा मानकर आपने पिता किसी आसन पर आसीन होकर एक वंत्र्ण तक राज करो क्योंकि यदि तुम राज नहीं करोगे तो राज के मनुष्य कहेंगे कि हरि भक्त होकर भी पहलाद ने राज नहीं पाया तू धैर्य धारण करके राज कर मेरी कृपा से तुझे काम क्रोध लोभ मोह मोह आदि नहीं सताएगी और सदैव मेरा स्मरण रहेगा और महा प्रलय काल तक संसार में तेरा यस अमर रहेगा तब पहलाद जी बोले हे दीनदयाल भक्तवत्सल कृपा निधान मेरी पिताश्री अपनी तामसी प्रवृत्ति के कारण आपको अपना शत्रु समझते थे जिस कारण विनर ऑफ रहे हैं आप उन पर कृपा करके सद्गति प्रदान करें पहलाद के वचन सुनकर नरसिंह भगवान बोले थे पुत्र तू अपने पिता के लिए चिंता मत कर जिस स्कूल में मैं तुम जैसा हरि भक्त उत्पन्न हो उस पुल वाले स्वप्न में भी नरक गति को प्राप्त नहीं होते मैंन तेरे ही पूर्वजों का मार्ग से निकालकर वर्ग भेज दिया फिर तेरे पिता नर्क वास कैसे रहेगा तत्पश्चात नरसिंह भगवान की आज्ञा पाकर पहलाद ने अपने पिता किरण कश्यप के नाम का दाह संस्कार किया तब स्वयं नरसिंह भगवान ने पहलाद को राज सिंहासन पर बैठा कर राजतिलक किया पहलाद में वहां उपस्थित देवताओं एवं डेट क्यों को दंडवत किया और आशीर्वाद प्राप्त किया नारद जी बोले हैं धर्मराज युधिष्ठिर पहलाद को शुभ आशीर्वाद प्रदान कर नरसिंह भगवान एवं देवता गण आपने लोग चले गए उसके बाद वे दोनों भाई अर्थात हिरण्याक्ष और हिरण कश्यप अगले जन्म त्रेता युग में रावण कुंभकरण तथा द्वापर युग में शिशुपाल वक्त हुए नारद जी के ने कहा हे धर्मराज इन्हीं भगवान ने तिरुपुर दहन के समय शिवजी के कष्टों को दूर किया धर्मराज ने पूछा है देवर्षि भगवान शंकर ने त्रिपुर दहन कैसे किया तब नारदजी बोले युधिष्ठिर सोने चांदी एवं लोहे के तीन श्रीमान दानव ने ऐसे बनाया कि उसमें संपूर्ण उपभोग की समाधि सहित देश के लोग उपस्थित रहते और आकाश में उड़ते रहते तथा देवताओं का नाश करते बेटियों के कर्म से दुखी होकर देवताओं में शंकर जी के पास जाकर प्रार्थना की देवताओं की प्रार्थना सुनकर शंकर जी ने अपने वादों से उन देशों को मार गिराया किंतु मैदानों ने उन मारे हुए व्यक्तियों को अमृत कुंड में डाल कर पुनः जीवित कर दिया यह देख सीजी अत्यंत उदार हुए तब भगवान श्री कृष्ण जी एवं ब्रह्मा जी जय ओम बचने के रूप धारण अमृत कुंड को मुंह लगाकर गए और भगवान शंकर को शक्ति प्रदान कर दैत्य का नाश करवाया
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Shrimad Bhagwat Katha Purana Seventh Skandha Chapter 10 Beginning
Narad ji has spoken about the kingship of Pahlada and the slaying of Tirupur demons. Hearing the words of Yudhishthira Lord Narasimha, Pahlada ji said that this deendayal worldly happiness does not always remain stable, one day it also perishes and you are lost in the blue of birth and death by giving the boon of worldly happiness. I want to do your pure devotion while staying away from us, I want your selfless service, you want to fulfill all my wishes by being happy on me, but I want that all my desires should be destroyed directly When desire arises in me, religion, patience, greed and intellect is put aside, Lord, you are not a thing from the night of the three worlds, but that too does not remain stable, then why should I ask you for something to get material pleasures. That I may receive the satsang of sages and saints day and night and do not speak your name even for a moment, apart from this, I do not want anything, Lord, saying that Prahlad love is auspicious, coming again and again to pray to Lord Narasimha. Then Lord Narsingh said, O son Pahlada, you are my supreme You are a devotee, you do not wish for anything, yet by obeying my orders, your father should sit on a seat and rule till a vantra, because if you do not rule, then the people of the kingdom will say that even being a devotee of Hari, Pahlada did not get the kingdom, you have patience. By ruling by my grace, you will not be harassed by lust, anger, greed, attachment, etc., and I will always be remembered and your glory will be immortal in the world till the end of the Great Holocaust, then Pahlada ji said, O Deendayal Bhaktvatsal, bless my father, because of his vengeful nature, make you your enemy. Used to understand that because of which you are the winner, please bless them and grant them salvation. Hearing the words of Pahlada, Lord Narasimha said, son, don't worry about your father, in the school where I was born a devotee like you, hell even in the dream of that bridge. I did not get the speed, I sent your ancestors out of the way and sent them to the class, then how will your father live in hell, after that, after getting the permission of Lord Narasimha, Pahlada cremated the name of his father Kiran Kashyap, then Lord Narasimha himself put Pahlada on the throne. But he did the coronation by sitting there in the first place Worshiped the present deities and date and got blessings Narad ji has said that by giving auspicious blessings to Dharmaraj Yudhishthira Pahlada, Lord Narsingh and the gods left, after that both of them brothers i.e. Hiranyaksha and Hiran Kashyap Ravana Kumbhakaran in the next birth Treta Yuga And during the time of Shishupala in Dwapar Yuga, Narad ji said, O Dharmaraja, this same God removed the sufferings of Shiva at the time of Tirupur Dahan. The demon made it in such a way that the people of the country would be present in it with the samadhi of complete consumption and keep flying in the sky and destroying the gods, being saddened by the deeds of the daughters, went to the gods and prayed to Shankar ji, listening to the prayers of the gods, Shankar ji kept his promises Killed those countries but the plains revived those killed by putting them in the Amrit Kund, seeing that CG became very generous, then Lord Shri Krishna ji and Brahma ji, taking the form of Jai Om to escape, went to the Amrit Kund with their faces and b Gawan Shankar got the power to destroy the demon.
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