श्रीमद् भागवत कथा पुराण छठवां स्कंध अध्याय 4

श्रीमद् भागवत कथा पुराण छठवां स्कंध अध्याय 4 आरंभ

दक्ष का ताप करना एवं परिचितों के यहां उत्पन्न होना श्री सुखदेव जी से इतने कथा सुनकर राजा परीक्षित बोले हैं महात्मा आपने सृष्टि उत्पत्ति की कथा का संक्षेप में वर्णन किया अब उससे मैं विस्तार पूर्वक सुनाना चाहता हूं परीक्षित के वचन सुनकर श्री सुखदेव जी अत्यंत प्रसन्न होकर बोले प्राचीन महर्षि को परिचित नाम के 10 पुत्रों की प्राप्ति हुई परिचित लोग भगवान शिव से आज्ञा प्राप्त कर समुद्र के किनारे तब करने चले गए और हजारों वर्ष तक कठिन तप करने के पश्चात जब हुए बाहर निकले तो वृक्षों द्वारा मार्ग में अवरोध पाया जिससे हुए अत्यंत क्रोधित हुए और अपने मुख की अग्नि से उन वृक्षों को जलाना आरंभ किया तब चंद्रमा ने नीम लोचा नामक कन्या को जो मेनका नामक अपरा और विश्वामित्र के सहयोग से उत्पन्न हुई थी को लाकर परिचितों से उनका विवाह करा दिया परिचितों ने आंखें उठाकर उस कन्या की तरफ देखा प्रभु इच्छा एवं ताप के प्रभाव से निम्न लोचन को उसी समय गर्व रह गया और दसवें माह में प्राची 1010 उत्पन्न हुआ तत्वों ने दक्ष को सृष्टि का विस्तार करने की आज्ञा दी आज्ञा पाकर दक्ष जी ने अपनी संकल्प शक्ति से बहुत से मनुष्य उत्पन्न कर दिए परंतु हुए भोग विलास में रुचि ना लेते थे जिससे सृष्टि का अधिक विस्तार ना हो सका तब दक्ष ने सृष्टि बढ़ाने के उद्देश्य से और धर्म मानो तीर्थ में विंध्याचल के निकट पर्वत पर जाकर घोर तपस्या करते हुए हाथ गुहा स्त्रोत से श्री नारायण की स्तुति की श्री सुखदेव जी बोले हे राजन् वह स्रोत में तुम्हें सुनाता हूं हे भगवान आप प्राकृतिक से परे हैं मैं आपको नमस्कार करता हूं जो जीव आत्मा से स्नेह करता है वह समस्त इंद्रियों का हाल जानता है परंतु इंद्रियां उनके भेद को नहीं जान पाती यह परमात्मा आप सीमा रहित अत्यंत पुरुष है जिसकी कृपा से मन शरीर प्राण और बुद्धि अपना अपना कार्य करते हैं ऋषि मुनियों ज्ञानी जान जिसका ध्यान आठों पहर करते हैं मैं उसे अविनाशी पुरुष को प्रणाम करता हूं जिस प्रकार यज्ञ करने वाले 15 मंत्रों से अग्नि उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष जिन्होंने तत्व का ज्ञान है वह बुद्धि से आपको खोज लेते हैं हे प्रभु संपूर्ण जगत आपकी माया है आप उत्पत्ति स्थिरता प्रदान करने वाले तथा महाप्रलय करने वाले आप हैं मैं आप को बारंबार प्रणाम करता हूं दक्ष द्वारा स्तुति करने पर श्री नारायण प्रसन्न हुए और अपने प्रिय वाहन गरुड पर सवार होकर चतुर्भुजी रूप में पितांबर धारण किए हुए मंद मंद हिरणी चिंतन वन से मुस्कुराते हुए नारद आदि भक्तों एवं आपने पार्षदों सहित दक्ष के सम्मुख प्रकट हुए दक्ष ने भगवान को दंडवत प्रणाम किया तत्पश्चात मुरली मनोहर घनश्याम बोले हे परिचिता के पुत्र भाग्यवान दक्ष तुमने सृष्टि की वृद्धि हेतु तप किया है सृष्टि की वृद्धि करना मेरी ही इच्छा है ब्रह्मा ने भी तब करके सृष्टि की रचना कि तुम भी पच अन्य प्रजाति की कन्या अस्वीकृत से विवाह कर मिथुन क्रिया द्वारा संसार उत्पन्न करो मानसिक दृष्टि से उत्पन्न मनुष्य विरक्त होकर तब करने चले जाते हैं स्त्री पुरुष के भोग से मोहनी दृष्टि उत्पन्न होकर सांसारिक माया से लिपटे रहत देंगे इस तरह दक्ष जी को उपदेश देकर भाग्यवान अंतर्ध्यान हो गए

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Shrimad Bhagwat Katha Purana Sixth Skandha Chapter 4 Beginning

King Parikshit has said after hearing so many stories from Shri Sukhdev ji to heat Daksha and to be born here, Mahatma, you have briefly described the story of creation, now I want to narrate it in detail to him, Shri Sukhdev ji was very pleased after hearing the words of Parikshit. Said that the ancient Maharishi had got 10 sons by the familiar name, the familiar people after getting permission from Lord Shiva went to the shore of the sea and after thousands of years of hard penance, when they came out, they found obstruction in the way by the trees, which caused a lot of problems. Enraged and started burning those trees with the fire of his mouth, then the moon brought a girl named Neem Locha, who was born with the help of a placenta named Menaka and Vishwamitra, married her to acquaintances, the acquaintances raised their eyes towards that girl. Seeing that due to the effect of Lord's desire and heat, the lower lochan became proud at the same time and in the tenth month Prachi 1010 was born. But did not take interest in the pleasures given, due to which the universe could not expand further, then Daksha went to the mountain near Vindhyachal in Dharma as if in a pilgrimage and did severe penance and praised Shri Narayan from the Hath Guha source. Shri Sukhdev ji said, O king, I tell you in the source, O Lord, you are beyond the natural, I salute you, the soul who loves the soul, he knows the condition of all the senses, but the senses do not know their difference, this God is your limit. He is a supremely devoid of grace, by whose grace the mind, body, soul and intellect do their own work. The men who have the knowledge of the Tattva find you with their intellect, O Lord, the whole world is your illusion, you are the one who provides stability and causes great destruction, I bow to you again and again, Shri Narayan was pleased when Daksha praised And riding on his favorite vehicle Garuda, wearing a four-armed Pitambara in the form of a quadrilateral, Narada appeared in front of Daksha along with the devotees and you councilors, smiling from the forest, Daksha bowed down to God, after that Murli Manohar Ghanshyam said, O acquaintance. Son, fortunate Daksh, you have done penance for the growth of the universe, it is my desire to increase the creation, Brahma also created the world by doing so that you also marry a girl rejected by another species and create the world through Mithun Kriya. After getting detached, they go to do the pleasures of men and women, they will get attached to worldly illusions and thus become fortunate by preaching to Daksha.

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