श्रीमद् भागवत कथा पुराण छठवां स्कंध अध्याय 10 आरंभ
इंद्रजीत का ऋषि दधीचि के पास हड्डी मांगने जाना श्री सुखदेव जी बोले हे राजा परीक्षित करुणासागर श्री नारायण का आदेश मानकर देवराज इंद्र एवं अन्य देवता गण ऋषि राज दधीचि के आश्रम पर गए और साष्टांग प्रणाम करने के पश्चात अति दीन स्वर में बोले है ऋषि राज हम सभी देवगण आपके पास भिखारी बन कर आए हैं आप अपनी दया दृष्टि हम देवताओं पर करें देवताओं के वचन सुनकर दधीचि ऋषि बोले हे देवराज ऐसी कौन सी विपत्ति आप पर आ गई है तब देवराज इंद्र करने लगे महात्मा हम समस्त देवताओं के कल्याण हेतु आपके तन की हड्डी को प्राप्त करने की अभिलाषा से याचक बनकर आपके पास आए हैं यह सुनकर दधीचि बोले हे इंद्र देव किस तरह मनुष्य को अपना तन प्यारा होता है उसी तरह मुझे भी अपना शरीर प्रिय है आप विचार करें कि जरा सी पीड़ा उत्पन्न होने पर अत्यंत कठिन होता है इसलिए अपने शरीर के समान दूसरों को भी जाना चाहिए अतः किस प्रकार आपको मैं अपनी हड्डियां प्रदान करो आप लोग मुझे असहाय कष्ट देने आए हैं तब इंद्र जी बोले हैं महात्मा आपका कथन सत्य है किंतु श्री हरिनारायण की आज्ञा से आपके हड्डी मांगने आए अन्य देवगन बोले हैं ऋषि राज आप ब्रह्म ज्ञानी हैं आप महान तपस्वी हैं आपके तब एवं उदारता वृत्तांत सुनकर हमें पूर्ण विश्वास है कि हम देवताओं को अपना निराश नहीं करेंगे यह सत्य है कि याचक बहुत स्वार्थी होता है और दादा के कष्टों का अनुभव नहीं करता किंतु है भगवान जिस प्रकार पेड़ पौधे अपने फल एवं पुष्पा आदि मनुष्य तथा पशु पक्षियों को प्रदान कर सुख का अनुभव करता है उसी तरह ऋषि जाना अपने शरीर को परोपकार के निर्मित ही समझते हैं और देवताओं की इस प्रकार विनय पूर्वक वाणी सुनकर विधि ऋषि दधीच कहने लगे हैं देवगढ़ यह तो मैंने तुम्हें धर्म का मार्ग जानने हेतु कहा था यह तन श्री नारायण का दिया हुआ है फिर इस नश्वर शरीर का क्या हुआ एक ना एक दिन इस को नष्ट होना है अतः यह मेरा ना स्वर शरीर किसी के काम आ जाए इससे उत्तम बात और क्या हो सकती है तथा योग बल द्वारा अपनी सुहाग अवरोध कर दी और उनका त्याग कर बैकुंठ धाम को चले गए तत्पश्चात उनके तन की अस्थियां लेकर देवता लोग श्री विश्वकर्मा जी के पास गए उन्होंने ऋषि दधीचि की हड्डियों से ब्रिज का निर्माण करके देवराज को प्रदान किया श्री सुखदेव जी बोले हे राजन् पुखराज को लेकर देवराज इंद्र के वृतांत टूर पर आक्रमण कर दिया
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Shrimad Bhagwat Katha Purana Sixth Skandha Chapter 10 Beginning
Indrajit went to Rishi Dadhichi to ask for a bone, Shri Sukhdev ji said, O King Parikshit Karunasagar, following the orders of Shri Narayan, Devraj Indra and other deities went to the ashram of Rishi Raj Dadhichi and after prostrating, said in a very humble voice, Rishi Raj Hum All the gods have come to you in the form of beggars, you should shower your mercy on us gods, listening to the words of the gods, Dadhichi sage said, O Devraj, what such calamity has come upon you, then Devraj Indra started praying for the welfare of all the gods. Hearing this, Dadhichi has come to you as a beggar with the desire to get the bone and said, O Indra, how a man loves his body, in the same way I also love my body, you should consider that it would have been very difficult if a little pain had arisen. That's why like your body, others should also go, so how should I give you my bones, you people have come to give me helpless trouble, then Indra ji has said, Mahatma, your statement is true, but on the orders of Shri Harinarayan, other gods came to ask for your bones. It is said that Rishi Raj, you are a knower of Brahma. You are a great ascetic and after listening to your generosity, we have full faith that we will not disappoint the gods. In the same way, sage Jana considers his body to be made for charity and after hearing the humility of the deities in this way, the sage Dadhich has started saying that Devgarh, I have told you the path of religion. It was said that this body has been given by Shri Narayan, then what happened to this mortal body, it has to be destroyed one day, so this my voice body can be of no use to anyone, what can be better than this and by the power of yoga Stopped their honeymoon and abandoned them and went to Baikunth Dham, after that the deities went to Shri Vishwakarma ji with the ashes of his body, they built a bridge from the bones of sage Dadhichi and gave it to Devraj. Taking attack on Devraj Indra's chronicle tour
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