श्रीमद् भागवत कथा पुराण चतुर्थी स्कंध अध्याय 10

श्रीमद् भागवत कथा पुराण चतुर्थी स्कंध अध्याय 10 आरंभ

ध्रुव को प्रभु का दर्शन प्रभु श्री नारायण के पास पहुंचकर समस्त देवता गणपति घबराहट पूर्ण स्वर में बोले हे त्रिलोकीनाथ यहां कैसा अनर्थ हो रहा है क्या किसी दृश्य ने इंद्रासन प्राप्त करने की इच्छा कठिन तप करना प्रारंभ किया है अथवा हो गया है देवताओं के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर नारायण जी बोले इन देवगढ़ आप सभी को चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है जिस वायु के रुकने से आप सभी व्याकुल हो रहे हैं उसे रोकने वाला कोई दैत्य नहीं बल्कि 5 वर्षीय बालक ध्रुव के कठिन तप का प्रताप है उसे अपने तपोबल से वायु के वेग को बांध ईद कर दिया अतः अब मुझे पवन हवा को मुक्त करने हेतु गुरुकृपा जाना होगा उसकी इच्छा पूर्ति का समय आ चुका है यह कह कर प्रभु श्री नारायण देव तारों को बालक ध्रुव की कथा संक्षिप्त में सुना कर उसके बीच से अंतर्ध्यान हो गए और जी स्वरूप का ध्यान करते हुए बालक ध्रुव उनका चिंतन कर रहा था उसी रूप में गरुड पर सवार होकर उसके सामने आ पहुंचे बालक ध्रुव अपनी आंखें बंद की श्री नारायण का स्वरूप अपनी आत्मा में बने हुए मग्न था प्रभु के आगमन का उसे एहसास भी नहीं हुआ तब वासुदेव भगवान ने अपना स्वरूप दू के अंतर्मन से खींच लिया परमेश्वर का स्वरूप आत्मा से लिप्त होते ही ध्रुव भगरा गया और आंखें खोल दी उसकी आंखें खोलने के सामने वही रूप धारी वासुदेव जी भगवान खड़े थे जिसका वह ध्यान कर रहा था उधर उसके चरणों में गिर पड़ा और उसके बाल मन मैं यहां विचार ओबरा की जीत परम शक्ति की स्तुति देवता गण नहीं कर पाते तो मैं अज्ञानी बालक उसकी स्तुति किस प्रकार कर सकते हैं इस कारण वह चुपचाप धन्यवाद करने के पश्चात हाथ जोड़कर प्रभु कसम खड़ा हुआ और प्रभु पूर्वक दिव्य ज्योति से जगमग आ करते हुए प्रभु के मुख मंडल को देखने लगा श्री नारायण अंतर्यामी है वह घट घट में वास करते हैं उन्होंने ध्रुव के मन की बात जान ली तत्पश्चात उन्होंने अपना संधू के फोटो एवं कंट्रोल में स्वादिया संघ का विश्वास प्राप्त होते ही ध्रुव के ह्रदय में ज्ञान का भंडार जाग उठा उसे प्रभु की कृपा से समस्त विद्याओं की प्राप्ति होगी और विधिवत प्रकार से वह भक्त भाषा ले की स्तुति करने लगा है त्रिलोकीनाथ भक्तों के पालक जब तक आपकी कृपा ना हो सांसारिक मनुष्य आपके दर्शन नहीं पा सकता देवताओं में भी इतनी सामर्थ्य नहीं कि आपके गुणों का वर्णन कर सके हे स्वामी हे जगत के पालनहार आपकी माया से संपूर्ण सृष्टि चलायमान है आप घट घट की आती है हे प्रभु आपकी निर्मल भक्ति प्राप्त करना उस कल्पतरु वृक्ष के समान है जिसमें प्राणी हर इच्छाएं पूर्ण होती है माता के दुर्घटना से दुखी होकर मैं आपकी शरण में आया था आपने मुझ अज्ञानी बालक पर दया किया यह आप की महान कृपा है प्रभु आपकी दया के बिना किसी मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाना संभव नहीं है ध्रुव की बात सुनकर चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए दीन दयाल प्रभु बोले हे पुत्र हम तुम से अति प्रसन्न है मांगू क्या चाहते हो प्रभु के वचन सुन दुगोला आपके दुर्लभ दर्शन पाकर कुछ भी मांगने की इच्छा शेष नहीं रही प्रभु तब अंतर्यामी प्रभु बोले तुमने मेरी गोद में बैठने की अभिलाषा और राजा सिहासन की इच्छा मन में रखकर मेरी तपस्या की है यह बालक सर्वप्रथम माय तुझे अपनी गोद में बैठा कर तेरी वह प्रथम इच्छा पूर्ण कर रहा हूं जो कि नाराज सिहासन से ऊंचे स्थान है यह पाकर प्रभु ने ध्रुव को अपनी गोद में बैठा तत्पश्चात बोले अब तू वापस घर को जा और माता के कड़वे वचन सुनकर मन में चले आए थे अपनी माता के सम्मुख राशि आसन पर बैठकर हजारों वर्षों तक राज्य कर और तेरी भी माता सौतेली मां का सपूत रुस्तम तेरी सेवा करेगा और एक बार शिकार खेलने हेतु दम जंगल में जाएगा वहां यक्ष के हाथी उसकी मृत्यु हो गई हेतु जब तू अपने इस ना स्वर स्थान का त्याग करेगा तब हम तुझे ब्रह्मा लोग से ऊपर 2 लोग में स्थान प्राप्त करेंगे तेरी कीर्ति तेरा नाम सदा सदा के लिए अमर हो जायेगा श्री नारायण द्वारा ध्रुव को वरदान प्राप्त होते देवता गण ने पुष्प वर्षा की उर्दू की प्रबल भाग्य की खुले मंच से सराहना किया वरदान देकर प्रभु वक्त अंतर्ध्यान हो गए तब उसकी कृपा से स्थिरता को प्राप्त हुई वायु चलने लगी हुआ यूके चलने से सभी जीव जंतु सुखी हो गए उसके बाद ध्रुवा अपने घर के लिए चल पड़ा और मन में विचार करता हुआ जा रहा था कि मुझसे बहुत बड़ी भूल हो हुई जो प्रभु श्री नारायण का दर्शन पाकर रावत सिहासन का शिव कार किया मुझे मोक्षा गति मारना चाहिए था इस प्रकार के विचार की उथल-पुथल में डूबता उतरता हुआ आपने नगर के बाहर एक बगीचे में जाकर तारा गुरु को देखकर बगीचे का मालिक भागता हुआ राज दरबार में मैं जरा और राजा उत्पन्न से ध्रुव के आगमन का वृतांत बतलाया उस समय नारद जी भी पधारे और माली के ऊपर जनों को साथियों घोषित करते हुए राजा से बोले हे राजन् तुम्हारा पुत्र अत्यंत भाग्यशाली एवं तुम्हारे पुल की कीर्तिमान को उज्जवल करने वाला परम तेजस्वी है वह श्री नारायण का दर्शन करके अपने मनोरथ पूर्ण कर लिया और बाद में जाकर विश्राम कर रहा है बता आप स्वयं चलकर आदर सहित उससे ले आवे महाराज जी के वचन सुनकर राजा की खुशी का ठिकाना ना रहा अति प्रसन्नता पूर्वक अपनी सेनाएं और भाजी बजाते हुए ध्रुव के पास पहुंचे नगर वासी श्री रूप को परमेश्वर को प्राप्त करने में सफल हुए हुआ जानकर अति प्रसन्न हुए और हजा के पीछे-छे ध्रुव दर्शन हेतु वहां जा पहुंचे इन सभी ने देखा सिर की जटा बढ़ाएं तन मेरा की भभूति लगाए हुए तू शांत मुद्रा में बैठा है राजा उत्पाद और देवर्षि नारद को देख कर दो उन्हें अपना अष्टांग प्रणाम किया प्रेम विवाह होकर रह जाए ध्रुव की गोद में उठा लिया और उसके कपूर को चूमते हुए अत्यंत प्रेम पूर्वक बोले हे पुत्र तू धन्य है जो इतनी छोटी उम्र मैं श्री नारायण के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त किया उसके बाद पिता की गोद से उतरकर दुर्गा अपनी विमाता सूची के पास गया और दंडवत प्रणाम करने के उपरांत सिस्टर स्वर में बोला या माता तुम्हारे उपदेश को सुनकर मन में चला गया था जहां मुझे प्रभु के साक्षात दर्शन मिले और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हुए फिर अपनी माता को प्रणाम किया और नगर वासियों का शिष्टाचार किया राजा उत्पाद अपने साधु को हाथी पर बिठाकर राजभवन आए और पुत्र के वरिष्ठ आने की खुशी में या चुका हूं तथा ब्रह्मणों को बहुत सारा रक्तदान किया प्रभु की कृपा उस पर होती है उससे सभी प्रसन्न रहते हैं हर प्रभु की भक्ति से दूर नास्तिकों के समान आचरण करने वाले प्राणी में सभी घृणा करते हैं मैथिली जी बोले हेवी दूर कुछ दिन और राजकाज करने के बाद राजा ने अपने मंत्रियों में ब्राह्मणों एवं अन्य विद्वानों जनों को सलाह करके ध्रुव को से आसन पर बैठने योग्य जानकार अच्छे मुहूर्त में उसका राजतिलक करा दिया और स्वयं तब करने हेतु वन में चले गए सिहासन पर बैठने के छात्रों ने धर्म एवं न्याय का पालन किया उस समय ऐसी शांति व्यवस्था थी कि सिन्हा एवं बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे प्रजा में किसी प्रकार का क्लेश ना था दुख एवं दरिद्रता का नाम ना था इस प्रकार राज्य करते हुए कुछ दिन व्यतीत हुए 1 दिन उत्तम ने शिकार खेलने हेतु ध्रुव से आज्ञा लिया और जंगल में चला गया वहां एक हिरण उसे दिखाई दिया किरण को देखकर उत्तम उसका पीछा करने लगा और घोड़ा दौड़ आते हुए कुबेर के बिहार स्थल पर जा पहुंचा उत्तम के साथ शिकार खेलने गए उसके साथियों ने मल मूत्र त्याग कर उसी स्थान को अपवित्र कर दिया उस उनके कर्मों को देखकर कुबेर के नौकर बोले हैं सांसारिक मनुष्य तुम लोगों का देवलोक में आना उचित नहीं है उनके वचन सुन रहा अभिमान के मद में चूर उत्तम ने दूर वचनों का प्रयोग किया जिसे सुनकर एक बलवान यक्ष ने उत्तम को पटक कर मार डाला और उत्तम के साथियों को डरा धमका कर भगा दिया उन लोगों ने आकर सारा वृत्तांत रूप से बदला या भाइयों की मृत्यु का समाचार सुनकर दो यह अत्यंत क्रोधित हुए और अपनी सेना लेकर आंखों से लड़ने के लिए चल पड़े अपने पुत्र उत्तम कालोट ढूंढते हुए रानी सूचित वन में गई जो आग लगने से जलकर भस्म हो गई खुद होकर राजा ध्रुव अपनी सेना सहित यादों के समक्ष पहुंचे तो युद्ध करने हेतु लाखों की संख्या में उपस्थित हो गए दूजी अपने सेनापति से बोले तुम सबको युद्ध करने की आवश्यकता नहीं बल्कि मैं अकेला ही युद्ध करूंगा तुम सभी तमाशा देखो यक्षिणी उन पर प्रहार किया जिसे ध्रुव बचा गए गए और अपने धनुष पर तीर चढ़ाकर मारे तो यज्ञ में से पूछ गिरकर प्राण दिन हो गए और कुछ घायल हुए राजा ध्रुव की विजय हुई युद्ध के परिणाम का समाचार एक यक्ष ने जाकर कुबेर जी से कहा यक्ष द्वारा सारा वृत्तांत सुनकर कुबेर जी अत्यंत क्रोध में भरकर अपनी सेना सहित ध्रुव से लड़ने के लिए आए और यह कहते हुए कि तू एक साधारण मनुष्य होकर देवताओं को कष्ट पहुंचाता है इसलिए अब मैं तुझे मारूंगा और फिर उन्होंने ध्रुव के ऊपर बाण का बौछार कर दिया किंतु युद्ध की कुशलता का प्रदर्शन करते हुए ध्रुव ने उसके वाहनों को निष्फल कर दिया या देखकर आश्चर्यचकित होकर गुरु जी बोले हे कुबेर जिसकी कृपा से तूने देव पद की प्राप्ति हुई है उसी गुरु के हम शिष्य हैं ध्रुव कि कल बात सुनकर कुबेर जी और ज्यादा कोदित हो उठे और ध्रुव को मृत्यु शैया पर सुलाने हेतु दान उसका नारायण का संविधान के अंदरूनी भी नारायण पत्र का आह्वान किया यह दिल से देखकर ब्रह्माजी अत्यंत चिंतित हुए उन्होंने विचार किया कि दूध जी हरि भक्त हैं और कुबेर जी देवता इनका कुछ ना बिगड़ेगा किंतु दोनों तरफ से यदि वहां पर लगा रे नारायण अस्त्र चल गए तो सांसारिक प्राणी बेकसूर मारे जाएंगे तब यह ध्रुव के दादा श्री सुधांशु मनु और महाराज जी को भेजकर कुबेर और थ्रू के बीच मेल करा देना उचित समझा

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Shrimad Bhagwat Katha Purana Chaturthi Skandha Chapter 10 Beginning

Lord's vision of Dhruva reached Lord Shree Narayan and all the deities Ganapati said in a bewildered voice, O Trilokinath, what kind of misfortune is happening here, has any scene started doing hard penance with the desire to attain Indrasan or has it happened from the mouth of the gods? Hearing such words, Narayan ji said in Deogarh, all of you need not be worried, due to the stopping of the wind which is disturbing all of you, there is no monster to stop it, but the 5-year-old boy is the majesty of Dhruv's hard tenacity. I have tied the velocity of the wind, so now I have to go to the Guru's grace to free the wind, the time has come to fulfill his wish, saying that Lord Shree Narayan Dev listened to the stars in brief and meditated from the middle of him. And while meditating on the form, the child Dhruv was contemplating on him, in the same form the child Dhruv came in front of him riding on Garuda, closed his eyes, the form of Shri Narayan was immersed in his soul, he realized the arrival of the Lord. Even if it did not happen, then Lord Vasudev gave his form. Pulled the form of God from the mind, Dhruv was stunned as soon as he was engrossed with the soul and opened his eyes, in front of his eyes, the same form of God Vasudev ji was standing in front of whom he was meditating, there he fell at his feet and his hair was here in my mind. Thought Obra's victory over the supreme power can not be praised by the gods, then how can I ignorant child praise him, because of this, after silently thanking him, he swore to the Lord with folded hands and lit up with the divine light before the Lord. Shri Narayan began to see the face of the circle, he resides in the ghat, he learned about Dhruv's mind, after that he got the trust of Swadiya Sangh in his photo and control of Sandhu, the store of knowledge in Dhruv's heart woke up to him. By the grace of the Lord, all the knowledge will be attained and in a proper way that devotee has started praising the devotees of Trilokinath. oh lord of the world Lord, the whole creation is moving due to your Maya, you come for little or no time, O Lord, receiving your pure devotion is like that Kalpataru tree in which every creature's desires are fulfilled, I came under your shelter after being saddened by the accident of my mother, you are my ignorant child. But have mercy, it is your great grace, Lord, without your mercy, it is not possible for a person to attain knowledge Ho Dugola, listening to the words of the Lord, after getting your rare sight, there was no desire to ask for anything, Lord, then the inner lord said, you have done my penance keeping the desire to sit in my lap and the desire of king throne, this child, first of all, I want you in your lap. Sitting and fulfilling your first wish, which is a higher place than an angry throne, the Lord made Dhruv sit on his lap and then said, now you go back home and after listening to the bitter words of your mother, you had come to your mother's heart. Sitting on the seat in front of the zodiac, he would rule for thousands of years and then Rustam, the son of my mother stepmother, will serve you and once Dum will go to the forest to play hunting, where the elephant of the Yaksha died, so when you will leave this place of your voice, then we will give you two people above Brahma people. You will get the place, your fame, your name will be immortal forever All the living beings became happy after walking to the UK, after that Dhruva left for her home and was thinking in her mind that I had made a big mistake, which Rawat throne after getting the darshan of Lord Shree Narayan. I should have killed Moksha; I was drowning in the turmoil of this type of thought; you went to a garden outside the city and saw Tara Guru, the owner of the garden, running away in the royal court, and the king was born to Dhruv. Narad ji also came and accompanied the people over the gardener. Declaring this, he said to the king, O king, your son is very fortunate and the one who brightens the record of your bridge, he has completed his desire after seeing Shri Narayan and is resting after going, tell yourself that you walk with respect. The king's happiness knew no bounds after listening to Maharaj ji's words and came to Dhruva with his armies and playing vegetables, the townspeople were overjoyed to know that Shri Roop had succeeded in attaining the Supreme Lord and after Haja- The six reached there for Dhruva Darshan, all of them saw that the hair of the head grew, you are sitting in a calm posture with the glories of the body of mine, looking at the king product and the god Narad, bowed down to them, did their Ashtanga obeisance and remain in Dhruv's lap. Picked up and kissing his camphor said with great love, O son, you are blessed, who at such a young age had the privilege of seeing Shri Narayan.After doing Naam, Sister spoke in voice or Mother had gone in my mind after listening to your teachings where I got a vision of the Lord and all my wishes were fulfilled, then I bowed to my mother and did the courtesy of the townspeople. But I have come to the Raj Bhavan after sitting and I am happy with the son's senior coming and donated a lot of blood to the brahmins. The grace of the Lord is on him, everyone is happy with him. Let's do Maithili ji said heavy away for a few days and after ruling the king, after consulting Brahmins and other scholars among his ministers, the knowledgeable knowledgeable person to sit on the seat from Dhruva got him crowned in a good Muhurta and then went to the forest to do it himself. The students of sitting on the throne followed religion and justice, at that time there was such a peace system that Sinha and the goat used to drink water on the same ghat, there was no misery in the subjects, there was no name of misery and poverty, thus ruling like this. A few days passed, 1 day Uttam learned Took permission from Dhruv to play and went to the forest, where a deer appeared to him, Uttam, seeing the ray, started chasing him and while running the horse reached Kuber's Bihar site, his companions went to play hunting with Uttam, excreted urine. Having defiled the same place, seeing their deeds, the servants of Kubera have said that it is not proper for you people to come to Devlok, a worldly man, listening to his words, Chur Uttam used distant words in the head of pride, listening to which a strong Yaksha listened. Uttam was slammed to death and intimidated Uttam's companions, they came and changed the whole story or let them hear the news of the death of their brothers, they became very angry and took their army and went to fight with their sons. Looking for the best kalot, the queen went to the informed forest, which was burnt to ashes due to fire, when King Dhruv himself reached before the memories along with his army, then millions of people appeared to fight, Duji told his commander, you all need to fight No but I will fight alone, you all look at the spectacle The Yakshini attacked those whom Dhruva was saved and killed with arrows on his bow, then he died after falling from the yajna and some injured King Dhruva won the news of the result of the war, a yaksha went and told Kubera ji. After listening to the whole story, Kuber ji came to fight with Dhruva with his army filled with great anger and saying that you are an ordinary human and cause trouble to the gods, so now I will kill you and then he showered arrows on Dhruva. But while displaying the skill of war, Dhruv sterilized his vehicles or was surprised to see that Guru ji said, O Kuber, by whose grace you have attained the position of God, we are the disciples of the same guru, Kuber ji after hearing about Dhruv yesterday. He got enraged and called Dhruv to make him sleep on his death bed, Narayan's innermost form of Narayana letter was also called for Narayan Patra. Seeing this from the heart, Brahma ji was very worried, he thought that milk ji is a devotee of Hari and Kuber ji deity will not spoil anything but. From both the sides, if there was Narayan a If the weapons are lost, then the worldly beings will be killed innocently, then it was considered appropriate to send Dhruva's grandfather Shri Sudhanshu Manu and Maharaj ji to reconcile Kubera and Thru.

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