श्रीमद् भागवत कथा पुराण स्कंधा तृतीय अध्याय 1 आरंभ
प्रथम अध्याय महात्मा विदुर का दुर्योधन को सलाह देना एवं श्री कृष्णा का महानता भी दूर थे कथन का अनुमोदन करना हे राजा परीक्षित आपसे कुछ समय पहले आपने मुझसे जो प्रश्न किया वही प्रार्थना स्त्री अर्थात लक्ष्मी जी के नारायण से किया था और नारायण जी ने लक्ष्मी को उस प्रश्न का उत्तर दिया जिसे श्रवण करने के पश्चात लक्ष्मी जी ने शेषनाग जी से कहा एवं शेषनाग जी ने वात्सल्य ऋषि को ज्ञान कराया तत्पश्चात कालांतर में वासना ऋषि ने मैत्रीय ऋषि को उपदेश देकर उन्हें कृत कृतज्ञ किया और उनके द्वारा महात्मा विदुर को ज्ञात हुआ इतनी कथा सुनने के उपरांत राजा परीक्षित ने पूछा एक ज्ञान के भंडार महात्मा विदुर से मैत्रीय की भेंट किस स्थान पर हुई उसके मन में उस समय उत्पन्न हुए आनंद की सीमा का भी वर्णन किया तब सुखदेव जी बोले हे परीक्षित धर्म के पालक राजा दृष्ट राष्ट्र अपने भाई के पुत्रों से अधिक प्यारा अपने पुत्र दुर्योधन को समझा और पांडवों को लाक्षागृह में भेजकर आग लगवा दिया जिससे पांडव जलकर भस्म हो जाए अधर्म छूत क्रीड़ा से उनके समस्त राज्य पर अपना वर्चस्व स्थापित करके उन्हें वनवासी बना दीया उनकी पवित्रता इस्त्री का भारी सभा में अपमान किया किंतु धर्म के रक्षक सृष्टि के संचालक भगवान श्री कृष्ण पांडवों के सहायक थे कदम कदम पर उन्हें पांडवों की रक्षा की वनवास बीट कर पांडवों ने लगने के बाद राजा दृष्ट राष्ट्र ने दूध भेज कर उन सभी को राज्यसभा में बुलवाया परंतु सभी पांडव ना आकर अपना मुखिया एवं शांति दूत बनकर अपनी तरफ से प्रभु श्री कृष्णा जी को भेजा वहां जाकर श्री कृष्ण जी ने दृष्ट राष्ट्र एवं अन्य सभा पतियों को इस तरह समझाया हे राजन जिस तरह तुम अपने पुत्रों से इसने करते हो उसी प्रकार तुम्हें भाइयों के पुत्रों से इसने करना चाहिए ना तो तुम्हारे अपने पुत्र तुम्हें स्वर्ग प्रदान करने का सामर्थ रखते हैं और ना ही पांडव के कारण तुम नर्क के भागी बनोगे अपने भाइयों के पुत्रों को जीवन यापन के लिए मात्र 5 गांव दे दो किंतु दृष्ट राष्ट्र ने प्रभु के कथन को पूर्ण रूप से अनसुना कर दिया तत्पश्चात नीति एवं वेद के प्रांगण महात्मा विदुर जी बोले है भाई नीति यही कहती है कि तुम मन में किसी प्रकार का विवेचना रखकर पांडवों को उनका हिस्सा दे दो वह पांचों भाई धर्म रूप हैं अन्यथा उन्हें इतनी सामर्थ्य है कि वे दसों दिशाओं में अपनी विजय पत्रकार आ सकते हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं त्रिलोकीनाथ समस्त ब्रह्मांड के नाथ भगवान श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं अपने 100 पुत्र को अति बलवान समझना आपकी भूल है अधर्म पथ पर पार्क भरोगे तो तुम्हारा धर्म भी नष्ट हो जाएगा राज्य धन का नाम तो होगा ही दुर्योधन को राशि हासन प्रदान करना पूर्ण रूप से अधर्म है यदि अपने कुल का एवं अपने परिवार का कल्याण चाहते हो तो दुर्योधन को राज गद्दी से उतार दो किंतु आंखों से अंधे दृष्ट राष्ट्र को पुत्र मोह में अत्यंत बाध्य कर रखा था पुत्र मुंह से आत्मा की आंखें भी अंधी हो रही थी सो विदुर जी के समझाने पर भी उन पर रत्ती बराबर भी भावना हुआ उसी समय गोद में उठाकर गरजते हुए दुर्योधन बोला विदुर को मेरी सभा से निष्कासित कर दो हमारे कुल का दासी पुत्र होकर पांडवों का पक्षधर है नामक मेरा खाता है और ता तारीख दारी उनकी करता है दुर्योधन की आज्ञा सुनकर सिपाही आगे बढ़े किंतु उस समय दृष्टि दृष्टि राष्ट्र ने सिपाहियों को रोकने का आदेश देकर दुर्योधन को समझाने का प्रयत्न किया परंतु वहां ना माना तब विदुर जी यहां विचार कर स्वयं स्वयं उठ खड़े हुए किसी पहियों द्वारा निकाले जाने पर अधिक अपमान होगा इसलिए इस बाप एवं अधर्म की सभा से स्वयं चला जाना सब प्रकार से उचित होगा अतः अपना आसन छोड़ कर उठ खड़े हुए और माया का चक्र चलाने वाले लीला धारी नटवर नागर श्री कृष्ण जी की तरफ देखने लगे उनके सांवले सलोने मौके पर हमेशा की तरह मन को मोह लेने वाली मुस्कान विद्यमान थी विदुर जी को समझते देर न लगी कि प्रभु श्री कृष्ण जी के मन में क्या है दुनिया को अपने इशारे पर नचाने वाले प्रभु करोड़ों का नाश करने की लीला करने वाले हैं उनकी मुस्कान में महा विनाशकारी महायुद्ध दिखलाई दिया विदुर जी को इसलिए अपने अपमान हो प्रभु की इच्छा मान कर चुपचाप बाहर की तरफ चल पड़े किंतु कुछ कदम चलने के पश्चात रुक गए और तन पर सुशोभित हो रहे समस्त रात्रि व वस्त्र आभूषण को उतारकर दुर्योधन की राजसभा में रख दिए तंवर एक लंगोटे लपेट कर वहां से निकले और उत्तराखंड में चले गए वर्षभर भारतखंड की तीर्थ यात्रा करते रहे तीर्थ का पूर्ण प्रसाद लेते हुए यमुना किनारे पहुंचकर देवताओं के दर्शन किए तथा बहुत दिन तक मैत्री ऋषि के समीप रहे उन्हें दिनों महाभारत का अति विनाशकारी युद्ध हुआ जिसमें अनगिनत मनुष्यों की बलि चढ़ गई लहू से कुरुक्षेत्र की धरती लाल हो गई अंततः पांडव विजय हुए गौरव का विनाश हो गया धर्मराज युधिष्ठिर राज्य सिंहासन पर विराजमान हुए विदुर जी ने मन ही मन प्रभु श्री कृष्ण के चरणों में शीश नवाया जो वहां पर उपस्थित ना होते हुए भी उपस्थित थे प्रणाम करने के पश्चात अन्य तीर्थों का भ्रमण करने के लिए चल पड़े रास्ते में उन्हें उद्धव जी मिले उद्धव जी प्रभु श्री कृष्ण जी के परम भक्त थे दोनों भक्तों आपस में बड़े प्रेम से गले मिले तत्पश्चात विदुर जी ने श्री कृष्ण बलराम एवं अन्य यादव सहित हस्तिनापुर की कुशल क्षेम पूछा उद्धव जी ने पूरा वृतांत विदुर जी को बतलाया यह जानकर कि गौरव का नाश हो गया उन्हें अत्यंत दुख हुआ किंतु महात्मा विदुर यह भी जानते थे कि तारणहार श्री कृष्णा की यही इच्छा थी सो उन्होंने महाभारत राज कार पाप के भार से अत्यंत दुख पा रही माता पृथ्वी के भार को उन्होंने कम किया है
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Shrimad Bhagwat Katha Purana Skanda III Chapter 1 Beginning
In the first chapter, Mahatma Vidur's advice to Duryodhana and Shri Krishna's greatness were also far away. Approving the statement, O King Parikshit, the question you asked me some time ago, the same prayer was done to the woman i.e. Lakshmi ji's Narayan and Narayan ji to Lakshmi. Answered the question which Lakshmi ji told Sheshnag ji after listening and Sheshnaag ji made Vatsalya sage knowledgeable, after that, later on, Vasana sage thanked Maitriya sage by preaching to him and through him Mahatma Vidur came to know so much. After listening to the story, King Parikshit asked, at which place Maitriya met Vidur, a storehouse of knowledge, he also described the extent of the joy that arose in his mind at that time, then Sukhdev ji said, O King of Parikshit's religion, the visionary nation is his brother. He understood his son Duryodhana to be more beloved than his sons and sent the Pandavas to the Lakshgriha and got them set on fire so that the Pandavas would be burnt to ashes by establishing their supremacy over their entire kingdom through unrighteous contagion and made them forest dwellers, their purity of iron. Insulted in a heavy assembly, but Lord Krishna, the protector of the universe, was the assistant of the Pandavas, on every step of the way, after the Pandavas beat them into exile to protect the Pandavas, King Drishti Nation sent milk and called all of them to the Rajya Sabha. Pandavas did not come as their chief and peace messenger and sent Lord Shri Krishna ji on their behalf, going there Shri Krishna ji explained to the visible nation and other meeting husbands in this way, O king, just as you do this to your sons, in the same way you should be treated as brothers. You should do this with sons, neither your own sons have the power to provide you heaven, nor will you be a part of hell because of Pandavas, give only 5 villages to the sons of your brothers for living, but the visionary nation said the words of the Lord. After that, Mahatma Vidur ji has said in the courtyard of the Vedas and the policy, brother policy says that by keeping some kind of discussion in your mind, give their share to the Pandavas, those five brothers are the form of religion, otherwise they have so much power that They spread their victory in the ten directions. These journalists can come and the most important thing is that Trilokinath himself, Lord Shri Krishna, the Nath of the whole universe, is his helper, it is your mistake to consider your 100 sons to be very strong, if you fill the park on the path of unrighteousness, then your religion will also be destroyed, then the name of state wealth. It would be absolutely wrong to give money to Duryodhana, if you want the welfare of your family and your family, then remove Duryodhana from the throne, but blindly blinded the eyes, the nation was very much compelled by the son's attachment. The soul's eyes were also getting blind, so even after Vidur ji's persuasion, there was an equal amount of emotion on him, at the same time, while roaring in his lap, Duryodhana said, expel Vidur from my assembly, being a slave son of our clan, he is in favor of the Pandavas. I have my account and do the date of them, after listening to Duryodhana's orders, the soldiers proceeded, but at that time the sighted nation tried to convince Duryodhana by ordering the soldiers to stop, but did not agree there, then Vidur ji got up himself after thinking here. driven by wheels There will be more humiliation on leaving, so it would be appropriate in every way to go away from this Father and the assembly of unrighteousness, so leaving his seat, got up and started looking at Shri Krishna ji, the lila-dhari Natwar Nagar who wields the wheel of Maya on his dark years. But as always, there was a pleasing smile to the mind, it did not take long for Vidur ji to understand what is in the mind of Lord Shri Krishna ji, the Lord, who makes the world dance at his behest, is going to do the Leela to destroy crores, great in his smile. Vidur ji was seen to be a disgrace, so he went outside silently, accepting the will of the Lord, but after walking a few steps, he stopped and took off all the night and clothes ornaments that were adorned on the body and kept the tanwar in Duryodhana's court. Wrapped a loincloth, came out from there and went to Uttarakhand, went on pilgrimage to Bharatkhand throughout the year, taking full prasad of the pilgrimage, reached the banks of Yamuna and saw the gods and stayed close to the sage Friendship for a long time, he had a very destructive war of Mahabharata in which Countless human beings were sacrificed in blood Due to which the land of Kurukshetra turned red, finally the glory of Pandavas was destroyed. Dharmaraja Yudhishthira, who was seated on the throne of the kingdom, Vidur ji bowed his head at the feet of Lord Shri Krishna, who was not present there even though he was present to bow down. After that, on the way to visit other pilgrimages, he met Uddhav ji. Asked Uddhav ji told the whole story to Vidur ji, knowing that the glory was destroyed, he felt very sad, but Mahatma Vidur also knew that this was the wish of the savior Shri Krishna, so he was suffering immensely from the burden of sin. He has reduced the weight of Mother Earth
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