श्रीमद् भागवत कथा पुराण सुखसागर अध्याय नवा

श्रीमद्भागवत पुराण सुख सागर अध्याय 9 आरंभ

धर्मराज को ज्ञान का उपदेश अपने सम्मुख बैठे ऋषि गणों के बीच ज्ञान की चर्चा करते हुए सूची बोले हे रिसीवड पितामह भीष्मा के आस पास आए हुए सभी लोग बैठ गए तब देवकीनंदन सुख निधान भगवान श्री कृष्ण जी बोले हे पितामह धर्मराज युधिष्ठिर का मंत्र राज्य का कार्य हमसे वीर सख्त हो रहा है यह स्वयं अपने को पापी एवं अधर्मी समझने लगे हैं कहते हैं कि मैंने अपने भाइयों को टुंबो एवं ब्रह्मणों को महाभारत के विनाश युद्ध में मारा है अतः मैं पापी हूं सो जब तक मैं पाप मुक्त नहीं हो जाऊं तब तक राज्य नहीं करूंगा और आप ही इन्हें समझाएं वासुदेव जी की बात सुनकर पितामह भीष्मा बाणों की शैया पर सोए हुए अति दुख भरी अवस्था होते हुए भी मुस्कान होठों पर लगाए बिना ना रह सके और बोले हे त्रिलोकीनाथ आप तो विधाता है सर्व ज्ञाता हैं आप धर्मराज को समझा सपने में पूर्ण सक्षम है फिर भी यह मान आप मुझे दे रहे हैं यह आप की महानता है प्रभु मैं आपको कोटि-कोटि प्रणाम करता हूं उनके पश्चात युधिष्ठिर को संबोधित करते हुए भीष्म बोले पिता माने राजधर्म दान धर्म एवं धर्म का वर्णन किया और धर्मों का विस्तार बताते हुए महाभारत में शांति पर्व एवं अनुशासन पर्व की व्याख्या की पूना सर बोले हे धर्म के पालक धर्मराज तुमको बाल्यावस्था से ही दुख की प्राप्ति होती आ रही है बचपन में तुम्हारे पिता श्री का देवास  हुआ उस समय तुम अबोध बालक है तुम्हारे अति बलशाली भाई भीमसेन को लड्डू में 20 मिलाकर खिलाया गया तुम पांचों भाइयों को लाख स्क्रीन में जलाकर मारने की प्रयास गौरव ने किया तत्पश्चात इससे भी जब कार्यों को सफलता ना प्राप्त हो सके तो छल कपट कर सहारा लेकर जुए से तुम्हें अरे राज्य को जीतकर तुम सभी भाइयों को 13 वर्ष का वनवास सी बना दिया 12 वर्ष वनवास एवं एक और अज्ञातवास अब यदि तुम कहो कि धर्मात्मा मनुष्य कभी दुख नहीं पाता तो कहां तक सच है तुम पांचों भाइयों एवं पतिव्रत पारायण स्त्री द्रोपति को क्यों दुख भोगना हुआ श्री कृष्ण जी के नाम को यहां याद किया जाता है वहां दुख भूल कर भी प्रवेश नहीं हो पाता हिल भी तुम्हारे दुख भोगना पड़ा इससे यही सिद्ध होता है कि परम ब्रह्म परमेश्वर श्री कृष्णा जी की यही इच्छा थी एवं दूसरों बात यह कि प्राण को अपने पूर्व जन्म के कर्म का फल अवश्य में ही भोगना होता है भीष्म पितामह का कथा सुनकर नटवर नंद लाल तिरछी चिंतन से युधिष्ठिर की तरफ देख कर मुस्कुराए उसके बाद भीष्म जी पुनः बोले हे धर्मराज बुद्धिमान वही है जो सुख-दुख को हरि इच्छा समझकर सदा ही प्रसन्न रहें जो थोड़ा सा कष्ट पाकर विचलित हो जाते हैं रोते हैं और यह कह कर संतोष कर लेते हैं कि हरि इच्छा ही ऐसी थी सच भी है मनुष्य के चाहने से कुछ नहीं होता होता वही है जो होनहार होता है प्रभु श्री कृष्ण का भेद जो अपना वास्तविक भेद छुपा कर संसार में अपनी लीला दिखाने के लिए अवतरित हुए इनके वेदों को कोई ना जान सका त्रिभुवन पति हो कर भी अर्जुन का सारथी क्यों बने इसलिए कि अर्जुन इनकी परम भक्त हैं यह धर्मराज जो मनुष्य प्रभु की इच्छा पर निर्भर होकर जब तक दाम एवं धर्म का कार्य करते हैं वह प्रभु को अत्यंत प्रिय हैं और उन भक्तों में सर्वश्रेष्ठ कैलाश पति श्री महादेव शंकर हैं जिन्हें प्रभु की भक्ति एवं भजन के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य अच्छा नहीं लगता दूसरे देवर्षि नारद जी हैं जो अपने वीणा बजाते हुए प्रभु के चरणों के ध्यान में हमेशा लिंग रहते हैं एवं प्रभु की कृपा से देवासी को कहीं भी किसी भी समय पहुंच जाने की सामर्थ प्राप्त है तीसरे भक्त हैं कपिल मुनि जो गंगा तट पर अकेले बैठे हुए भगवान के चरणों काई स्मरण करते रहते हैं चौथे हैं श्री सुखदेव जी जो सांसारिक बंधनों को त्याग कर आठों पहर प्रभु के चरित्र और गुणवान को बढ़ते रहते हैं पांचवें स्थान पर आते हैं महाराजा वाली जिन्होंने वामन रूप श्री कृष्ण को अपना समस्त राज्य दान दे दिया अतः जो कुछ भी होता है हो रहा है अथवा होगा वह सभी प्रभु की इच्छा पर ही निर्भर है तो तुम भी यहां जान लो कि तुमने कुछ नहीं किया जो कुछ भी हुआ इन सांवली सलोनी सूरत वाले संसार में अपनी लीला दिखाने वाले चक्रधारी मुरली मनोहर श्री कृष्ण जी की इच्छा से हुआ प्रभु इच्छा जानकर तुम राज करो एवं अपनी प्रज्ञा का पालन करो यदि तुम राज्य और सिहासन स्वीकार नहीं करोगे तो और ज्यादा पाप के भागी बनोगे

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Shrimad Bhagwat Purana Sukh Sagar Chapter 9 Beginning

The preaching of knowledge to Dharmaraja, while discussing the knowledge among the sages sitting in front of him, the list said, O received grandfather, all the people who came around Bhishma sat down, then Devkinandan's happiness Nidhan Lord Shri Krishna ji said, O grandfather, the mantra of Dharmaraja Yudhishthira, the work of the state. Our heroes are getting tougher, they have started considering themselves as sinners and unrighteous, it is said that I have killed my brothers in the war of destruction of Tumbo and Brahmins in Mahabharata, so I am a sinner, so until I become free from sin, the kingdom I will not and you will explain to them, listening to the words of Vasudev ji, Father Bhishma, despite being in a very sad state, sleeping on the bed of arrows, could not live without putting a smile on the lips and said, O Trilokinath, you are the creator, you are all knower, you understood Dharmaraj. Completely capable in dreams, yet you are giving this value to me, it is your greatness, Lord, I bow to you in every respect, after him, addressing Yudhishthira, Bhishma said father, considered the king, described religion and religion and religions. Shanti Parva and Discipline in Mahabharata explaining in detail Poona sir said about the explanation of the festival, O Dharmaraja, the guardian of religion, you have been suffering since childhood, your father Shri was devas in childhood, at that time you are an innocent child, your very powerful brother Bhimsen was fed by mixing 20 in laddus. Gaurav tried to kill all five of you brothers by burning them in lakhs of screens, even after that, even when the works could not be successful, then by deceitful and cheating, you conquered the kingdom by gambling and made all of you brothers in exile for 13 years. Years of exile and one more exile, now if you say that a godly man never gets hurt, then to what extent is it true, why did you five brothers and a virtuous woman, Draupathi, have to suffer, the name of Shri Krishna ji is remembered here, forgetting sorrow there. Even the hill could not enter, you had to suffer your miseries, this proves that this was the wish of Supreme Brahma Parmeshwar Shri Krishna ji and others thing that the soul must have to suffer the fruits of the deeds of his previous birth of Bhishma Pitamah. After listening to the story, Natwar Nand Lal, with oblique contemplation, Yudhishthira Looking at him and smiling, Bhishma said again, O Dharmaraja, the wise are the ones who are always happy considering happiness and sorrow as Hari's desire, those who get distracted after getting a little trouble, cry and are satisfied by saying that Hari will. It was like this, it is also true that nothing happens by the wishes of man, it is the one who is promising, the secret of Lord Shri Krishna, who by hiding his real secret, incarnated to show his pastime in the world, no one could know his Vedas, Tribhuvan is the husband. Why did he become the charioteer of Arjuna, because Arjuna is his supreme devotee, this Dharmaraja, the man who works according to the will of the Lord, as long as he does the work of price and religion, he is very dear to the Lord and the best among those devotees is Kailash Pati Shri Mahadev Shankar. Those who do not like any work other than devotion and devotion to the Lord, the other god is Narad ji, who is always in meditation of the feet of the Lord while playing his veena, and by the grace of the Lord, the deity has the ability to reach anywhere at any time. Power is attained, the third devotee is Kapil Muni, who is sitting alone on the banks of the Ganges. One keeps on remembering the feet of the Lord. Fourth is Shri Sukhdev ji, who renounces worldly bonds and keeps on increasing the character and qualities of the Lord at eight o'clock, comes the fifth place, Maharaja Wali who donated his entire kingdom to Shri Krishna in the form of Vamana. Therefore, whatever happens, is happening or will happen, it is all dependent on the will of the Lord, so you should also know here that you have not done anything, whatever happened in the world of this dark Saloni Surat, the Chakradhari Murli Manohar Shree who showed his pastimes. Knowing the desire of Lord Krishna, you rule and follow your wisdom, if you do not accept the kingdom and throne, then you will be guilty of more sin. 


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