श्री कृष्णा द्वारा युधिष्ठिर को राजसूर्य यस की प्रेरणा एवं सरसन पर पड़ेगी तांबा के पास युधिष्ठिर का जाना और नियति पूछा अश्वत्थामा को नगर की सीमा से बाहर निकाल देने तक की कथा सुनने के पश्चात सूजी बोले हे ऋषि-मुनियों धर्मराज और श्रीकृष्ण की आज्ञा प्राप्त कर दुर्योधन एवं अन्य राजाओं की जो रणभूमि में मृत होकर पड़े थे उनके कुटुम परिवार के लोग उठाकर ले गए और अंतिम संस्कार किए उस समय प्रभु श्री कृष्णा के साथ पांचो पांडव द्रोपदी कुंती गंधारी एवं दृष्ट राष्ट्र में जाकर गंगा स्नान किया जो स्त्री विधवा हो गई थी उस समय अपने पति के वियोग में करुणा रूप दान करने लगी यह दृश्य देखकर युधिष्ठिर अति व्याकुल हुए और स्वयं अपने को धिक्कार ते हुए कहने लगे कि आपने सन संबंधियों को मरवाने का जो पाप मुझे लगा है वह कभी छूट नहीं सकता महायुद्ध में जो विनाश हुआ है जिसमें हमारे कुटुंब के हजारों स्त्रियां विधवा होकर विलाप कर रही हैं इन आंखों से आंसू गिर कर पृथ्वी के जितने राजगढ़ भीगे इतने वर्षों तक मुझे नरक भोगना होगा या इस युद्ध में गुरु द्रोणाचार्य पितामह भीष्मा और महादानी भाई करण और अन्य बहुत से वीर मारे जा चुके हैं अतः अधर्म से राजभोग करना मुझे स्वीकार नहीं है धर्मराज के वचन सुनकर श्री कृष्ण वेदव्यास और ब्राह्मण गण उन्हें समझते हुए बोले हैं युधिष्ठिर पूर्व समय से ही राजा लोग इसी तरह राज करते आए हैं राज पाने के लिए पुत्र पिता को एवं भाई भाई को मार डालता है और अंत में अश्वमेध यज्ञ करके पापों से मुक्ति पा लेता है श्री कृष्ण जी के वचन सुनकर युधिष्ठिर बोले हे प्रभु आप केवल मुझे भाषण दे रहे हैं क्योंकि यह करने से आने का एक पशु पक्षी और जीवों की हत्या मेरे हाथ से हो जाएगी हमारे यज्ञ में विधवा स्त्रियों का दुख तो दूर ना हो सकेगा यदि आप कहेंगे कि पहले तो राज पाने की लालसा से महायुद्ध किया और अब इस तरह की बातें कर रहे हैं जो तो मैं कहूंगा कि मेरे उस समय भी युद्ध करने की इच्छा नहीं थी मेरी बुद्धि को ना जाने क्या हो गया था और महाभारत का विकराल युद्ध हो गया हे केशव मैं सिहासन पर नहीं बैठूंगा युधिष्ठिर के वचन सुनकर मुरलीधर ने विचार किया इस तरह मेरे वचनों को मानने वाले नहीं है कुछ अन्य तरह का उपाय सोचना चाहिए जिस घड़ी श्री कृष्ण जी विचार कर रहे थे उसी समय ऋषि-मुनियों और ब्राह्मणों ने निवेदन किया हे चक्रधर प्रभु धर्मराज जी का मन राजकाज में नहीं लग रहा है अतः आप अपने ज्ञान का भंडार खोल कर इन्हें उपदेश देकर धर्मराज का चिंतन शांत करें यह सुनकर श्री कृष्ण चंद्र जी बोले हे श्रेष्ठ पुरुष धर्मराज मेरे समझाने से समझने वाले नहीं हैं इन्हें सरसैया पर लेटे हुए पितामह किस्मत ही समझा सकते हैं हम इन्हें पितामह के पास ले चलते हैं उन्हें भी मेरे दर्शनों की अभिलाषा है वही धर्मराज को ज्ञान का उपदेश देकर समझाएंगे इतना कह कर श्री कृष्णा जी ने युधिष्ठिर को अपने पास बुलाया और बोले हे धर्मराज अभी तुम्हारे चिंतन को शांति नहीं मिली है दूसरी तरफ ऋषि मुनि कहते हैं कि तुम्हारे पाप मुक्ति के लिए आश्रम में या यस करना चाहिए मैं अरे भी समझने पर आप समझ ना सके अतः आप मेरे साथ पिता पितामह भीष्म के पास चले श्री कृष्ण जी की बात मानकर धर्मराज उनके साथ हो लिए और उनके पीछे-पीछे धर्मराज के चारों भाई द्रोपति एवं अन्य जनमानस भी उस स्थान पर गए जहां अर्जुन के बाणों से वृद्ध होकर पितामह भीष्मा सरसैया पर पड़े थे ब्राह्मण लोग पितामह के दाहिने तरफ एवं द्रोपति सहित पांचों भाई भाइयों तरफ बैठे गए स्वयं मुरली मनोहर श्री कृष्णा उनके पैरों की तरफ बैठ गए क्योंकि वे जानते थे कि भीष्म पितामह को उनके दर्शनों की अभिलाषा है यदि वे किसी दूसरी तरफ बैठते तो घायल पड़े पितामह को करवट बदलने में अत्यंत कष्ट होता यह समाचार सुनकर युधिष्ठिर जी पितामह भीष्मा से ज्ञान का उपदेश प्राप्त करने गए देवर्षि नारद परशुराम जी एवं भारद्वाज ऋषि भी पधारे प्रभु श्री कृष्ण जी का सरसैया पर लेटे हुए इच्छाधारी मृत्यु वरदान पाए हुए महापुरुष पितामह भीष्म ने मन ही मन पूजन किया
After listening to the story of Yudhishthira being driven out of the city limits by Shri Krishna, Yudhishthira's visit to the copper would fall on the sarson and asked destiny, Suji said, O sages, get the permission of Dharmaraja and Shri Krishna. The family members of Duryodhana and other kings who were lying dead in the battlefield took them away and performed the last rites. At that time Yudhishthira started donating compassion in the separation of her husband, seeing this scene, Yudhishthira was very distraught and began to curse himself and say that the sin that I have committed for killing your relatives can never be remitted, the destruction that happened in the great war. In which thousands of women of our family are mourning as widows, I will have to suffer hell for so many years by falling tears from the eyes of the kings of the earth or in this war Guru Dronacharya Pitamah Bhishma and Mahadani Bhai Karan and many other heroes will be killed. have been Therefore, I do not accept to indulge in unrighteousness, listening to the words of Dharmaraja, Shri Krishna, Ved Vyas and Brahmins, understanding them, have said that Yudhishthira has been ruling like this since time immemorial. And in the end, by performing the Ashwamedha yajna, Yudhishthira, hearing the words of Shri Krishna ji, said, Lord, you are only giving me a speech, because by doing this, an animal, bird and living beings will be killed by my hands. I will not be able to overcome the sorrow of widowed women if you say that first I fought a great war with the desire to get the kingdom and now I am talking about such things which I will say that I did not have the desire to fight even at that time. Don't know what had happened and there was a fierce war of Mahabharata, O Keshav, I will not sit on the throne, listening to Yudhishthira's words, Muralidhar thought, thus he is not going to believe my words, some other way should be thought of when Shri Krishna ji thought At the same time, the sages and brahmins requested, O Chakradhar Prabh Dharamraj ji's mind is not feeling in the administration, so you open your store of knowledge and calm the thoughts of Dharmaraja by preaching to him, Shri Krishna Chandra ji said, listening to this, the best man Dharmaraja is not going to understand by my explanation, he is lying on the sarsaiya. Only the grandfather can explain the luck, we take him to the grandfather, he also has the desire for my visions On the other hand, the sage says that to get rid of your sins, you should do this in the ashram or yes, even if you understand, you can not understand, so you go with me to Father Pitamah Bhishma, obeying Shri Krishna ji, Dharmaraj should be with him. And after him, the four brothers of Dharmaraja, Draupati and other people also went to the place where the grandfather Bhishma was lying on Sarsaiah, having grown old with Arjuna's arrows, the brahmin people sat on the right side of the grandfather and the five brothers along with Drapati were sitting on the side of the brothers Murli Manohar himself. Shri Krishna like his feet He sat down because he knew that Bhishma Pitamah has a desire to have his darshan. Ji and Bharadwaj Rishi also came and worshiped Lord Shri Krishna ji lying on the sarsaiya and received the boon of death, the great man Pitamah Bhishma worshiped in his mind.
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