श्रीमद्भागवत पुराण सुखसागर अध्याय 7

श्रीमद्भागवत पुराण सुखसागर अध्याय 7 आरंभ

बिहार जी को देवर्षि द्वारा चार श्लोक का ज्ञान बद्रीनाथ जाकर तब करना एवं श्री मंत्र भागवत पुराण की रचना करना सूजी बोले हे रिसीव वेदव्यास जी से देवर्षि नारद बोले हे व्यास जी हमने 4 लोग अपने पिता श्री ब्रह्मा से सुने हैं और पिता श्री को इन चारों इस लोक का ज्ञान स्वयं नारायण ने कराया इसलिए आप चारों श्लोकों का विस्तार करके परमेश्वर की महिमा का गुणगान लिखो परमेश्वर की महिमा केवल मनुष्य योनि में रहने वाले जीवो ही जान सकते हैं पशु पक्षी नहीं जान सकते जो जीव मनुष्य तन पाकर नारायण का भजन ध्यान करके भवसागर से पार उतर गया उसी का जीवन सफल जिससे इसका ज्ञान नहीं वह लख चौरासी योनियों के चक्र में पढ़कर भटकता रहता है और अंधता दुख का भागी होते हुए मोक्ष से दूर पड़ा रहता है पुनः वेदव्यास जी को चारों श्लोक का अर्थ विस्तार में समझते हुए नारद जी बोले है व्यास जी तुमको चाहे कि पहले ब्रह्मा के चरणों का ध्यान करो जब प्रभु का चमत्कारिक रूप तुम्हारे अमिता कारण हृदय में प्रविष्ट हो तब उनकी कथा का वर्णन करना इतना कह कर नारद जी वहां से श्रीमान नारायण नारायण की ढेर करते हुए प्रस्थान कर गए तब या जी ने पवित्र नदी सरस्वती में जाकर स्नान किया और बद्री का आश्रम जाकर हरि के ध्यान में लीन हो गए वही उनकी बंद आंखों ने एक ज्योति पुंज देखा जो अत्यंत ही प्रकाशमान होकर उसके ह्रदय में समा गया तब व्यास जी को सामर्थ प्राप्त हो गई तत्पश्चात नारद जी द्वारा बताए गए चारों श्लोकों का विस्तार किया और श्रीमद्भागवत महापुराण का सृजन किया और अपने पुत्र सुखदेव को सुनाया जिसके पढ़ने एवं सुनने से सांसारिक बंधनों से छुटकारा मनुष्य परम पद को प्राप्त होता है श्री सुखदेव जी श्रीमद् भागवत की कथा आपने बिंदु से राजा परीक्षित को सुनाते हुए बोले हे राजन् कुरुक्षेत्र में 1800 सेनानियों का और और पांडवों के पास इकट्ठा हुए एवं 18 दिन तक अति धमासा में युद्ध हुआ जिस समय भीमसेन से घायल होकर दुर्योधन रण क्षेत्र में पढ़ा था उसी समय द्रोण पुत्र व सुदामा आकर दूर गगन से बोला है मित्र हम तुम दोनों बचपन में एक साथ खेले हैं आज शत्रुओं ने तुम्हारी जो दुर्गति की है उसे देख कर मैं सहन नहीं कर पा रहा हूं अतः तुम मुझे जो आज्ञा दो मैं वही करूंगा अश्वत्थामा के वचन सुनकर दुर्योधन बोला है बाल सखा मुझे अपनी जांघों टूटने का इतना दुख नहीं जो हो रहा है जितना दुख पांडवों के विजय होने का है तुम्हारे रहते हुए शत्रु राज करे या तुम्हारे लिए बड़े लज्जा की बात है यह सुनकर अश्वत्थामा बोला यदि यह बात है तो आज ही रात पांडवों की मृत्यु की रात होगी मैं उन पांचों का सिर प्रकट करके तुम्हारे सामने ला दूंगा जबकि सोते मानव पर आक्रमण करना अशोभनीय है फिर भी यह नीति पूर्ण कार्य मैं तुम्हारे लिए करूंगा परंतु अश्वत्थामा के मन की बात सुदर्शन चक्र धारी ध्यान पड़े और पांडवों के पास पहुंचकर बोले तुम पांचों भाई आज ही रात अपना डेरा सरस्वती के किनारे लगाओ बाकी लोगों को यहीं पर रात्रि विश्राम करने दो उसी उसी रात अश्वत्थामा ने कृपाचार्य से सहमति ली यद्यपि कृपाचार्य ने उसे बहुत मन किया समझाया कि यह धर्म होगा किंतु देव अधिक देव महादेव के वरदान के घमंड में चूर अश्वथामा ना माना और एक प्रहार रात्रि बीत जाने पर पांडवों के खेमे में जा पहुंचा रूद्र स्त्रोत पढ़कर पांडव के खेतों के चारों ओर आग लगा दी और सिविल के भीतर घुसकर पांडवों के खून में में सोए हुए द्रोपदी के पांचों पुत्रों का सिर काट लाया जो स्वयं रंग में पूर्ण पांडवों के समान थे उनके मस्तक पर को लाकर दुर्योधन के हाथ में देता हुआ बुला लो मित्र अपने शत्रुओं के कटे सिर देखो मैंने तुम्हें दिया हूं अपना वचन पूरा किया दुर्योधन अति प्रसन्न होकर उन मस्तक को अपने हाथ में लेकर दबाने लगा जिस मस्तक व स्वस्थ हमारा धर्म का मस्तक काकर दुर्योधन के हाथ में दिया उसी समय दुर्योधन के प्रसंता की सीमा ना रही किंतु उसी मस्तक को दबाने से उसे प्राप्त हुआ जैसे हुआ भीमसेन का मस्तक नहीं है वह सुदामा से बोला है मित्र भीमसेन का मस्तक कदाचित ऐसा नहीं हो सकता जो मेरे दबाने से टूट जाए निश्चय ही तुमने किसी और का धोखा हुआ है तूने धोखे में पांडव पुत्रों को मारकर मेरे वंश को आग लगाने से रोक दिया है यह कहते हुए वह आती दुखी हो गया और उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो गया जो कि उनके जन्म कुंडली में वर्णित था दुर्योधन की मृत्यु उसी समय होनी थी जब उसे किसी बात का अति हर्ष हो एवं दक्षिण पूर्व उसे घनघोर विशाल दुख उत्पन्न हो इधर द्रोपति के जब ज्ञात हुआ कि उसके पुत्रों की अश्वत्थामा ने मारा है तो अति करूंगा रूद्र करते हुए बोली जब तक अश्वत्थामा मारा नहीं जाएगा तब तक माय अन्न और जल ग्रहण नहीं करेंगी अर्जुन आदि को जब यह बात ज्ञात हुआ कि 5:00 वाली ने कसम खा ली है तो अत्यंत दुखी हुए और द्रोपति बोली हे आर्यपुत्र मायने यस सौगंध आपके बल पर खाई है आप जो उचित समझे वही करें द्रोपति की बात सुनकर अर्जुन गंभीर स्वर में बोला तुम धैर्य रखो मैं अश्वत्थामा का सिर काट कर अभी लाता हूं पर तुम उसके मस्तक पर खड़े होकर इस नाम करना उन्हें अपना गांधी उठा लिया और श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हुए बोले हे केशव नाथ तेज गति से मेरे रात को अश्वत्थामा के पास ले चलो या का कर सुनकर बात ही बात प्रभु श्री कृष्णा जी हर रात को लेकर अश्वत्थामा के पास पहुंचे उन्हें देखकर अश्वत्थामा ने अपने प्राण की रक्षा के लिए ब्रह्मा जी द्वारा प्रदान किए हुए ब्रह्मास्त्र को धनुष पर चढ़ाकर अर्जुन के ऊपर छोड़ दिया ब्रह्मास्त्र के छूटते ही दसों दिशाओं में अग्रिम आए मालूम होने लगा समूचे ब्रह्मांड कब का पानी मानो था ब्रह्मास्त्र को अपनी तरफ आते हुए देखा अर्जुन बोले हे देवकीनंदन यह कैसी पहचान अग्नि मेरे तरफ बढ़ती आ रही है अर्जुन की बात सुनकर कृष्ण जी बोले हैं ब्रह्मास्त्र है अर्जुन जिससे अश्वत्थामा ने तुम पर चलाया है तुम भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करो जिससे यह प्रचंड अग्नि तुम तक ना पहुंच सके अश्वत्थामा अपनी ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता है किंतु लौटान  नहीं जानता है और तुम लौट आना भी जानते हो इसलिए निसंदेह होकर अस्त्र चलाओ केशव की बात मानकर अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र चला दिया दोनों पर ले कार्य वस्त्र आपस में टकरा गए अर्जुन द्वारा छोड़ा गया ब्रह्मास्त्र सुदामा के ब्रह्मास्त्र को रोकते रुक हुए था जिसे अर्जुन पूर्ण रूप से सुरक्षित बने रहे कुछ देर तक अस्त्र युद्ध देखने के बाद श्री कृष्णा जी बोले हे अर्जुन आप तुम मंत्र बल से दोनों अस्त्रों को अपने पास बुला लो नहीं तो इनकी क्रोधाग्नि से 20 व के सभी चला चल शक्तियां भ्रम हो जाएगी आदेश पाते ही अर्जुन ने वैसा ही किया जैसा पालनहार चाहते थे और फिर रात को आगे बढ़ा करा अश्वत्थामा को पकड़ लिया जिस समय अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़ा था क्षण उनके मन में विचार उभरा की अश्वथामा ब्राह्मण है और साथ ही साथ गुरु पुत्र भी है इसे मारना उचित नहीं है अर्जुन के मन में उभरते विचारों को जानकर परीक्षा लेने के लिए भगवान श्रीकृष्ण बोले अर्जुन अश्वत्थामा नेहा नीति से सोते हुए बालकों की हत्या की है उसके मस्तक काट लिए हैं तब तुम भी इसका मस्तक काट लो सूची रिशु को प्रभु लीला का वर्णन करते हुए बोले उस समय अर्जुन ने कहा हे कृपा निधान आपका कथन सत्य है कि ब्राह्मण को मारना घोर अधर्म होगा इसका संघार ना करके माई से द्रोपति के पास ले चलता हूं वहां जैसा कहेगी वैसे ही करूंगा अर्जुन की बात अनंत लाल ने भी स्वीकार कर ली तब अश्वत्थामा को कैदी बनाकर द्रोपति के पास ले गए और सुदामा की दीन दशा देखकर द्रोपदी का नारी हिर्दय पिघल गया वह श्री कृष्णा जी से बोले हे प्रभु आपने मेरी प्रतिज्ञा पूरी कर दी आप इस ब्राह्मण की हत्या ना करें तो उचित होगा क्योंकि इसकी हत्या करने से मेरे पुत्र जीवित तो नहीं होंगे इसलिए आप मुझे मुक्त कर दें जिस तरह पुत्र वियोग में मैं दुख क पा रही हूं उसी तरह इसकी माता भी दुखी होगी द्रोपति की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर बोले एक अनुज द्रोपति उचित ही कह रही है अश्वत्थामा के वध से ब्राह्मण हत्या का पाप लगेगा किंतु भीमसेन को उन सभी की सलाह अच्छी ना लगी वह गोद में उठा कर बोले हे अर्जुन तुम अश्वत्थामा को मारने का प्रण लिया था क्या सोते हुए बालक का सिर काटते समय अश्वत्थामा को अनीति का ध्यान ना था इससे ब्राह्मण अथवा में नाथा धर्म ग्रंथों में लिखा है की शरण में आए हुए मनुष्य सोए हुए बालक और स्त्री को मारने वाला को कठोर से कठोर दंड देना राजाओं का धर्म है अंधता तुम अपने धर्म का पालन करो 6 तरह के पापियों को दया कर पात्र समझकर क्षमा दान देना अधर्म की श्रेणी में आता है पहला वह जो आग लगाने दूसरा वह जो गुरु की आज्ञा ना मानने तीसरा वह ब्राह्मण होकर अधर करें चौथा वह जो बीज देकर किसी की हत्या करें पांचवा वह मदिरा पान करा कर और छठवां वह प्राणी को मारे जो अपने परिवार के भरण-पोषण करें इसलिए के अनुज तुम निश्चित रूप से अश्वत्थामा का वध कर डालो धर्मशास्त्र भी यही कहता है अपने बड़े भाई की बात सुनकर अर्जुन आती विनम्र होकर श्री कृष्ण भगवान से बोले हे प्रभु आपके विचार से क्या उचित और क्या अनुचित है तब कृष्ण जी बोले भीमसेन की कथा युधिष्ठिर के आदेश और वेद शास्त्रों का ध्यान करते रखते हुए कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे सब को प्रसन्नता प्राप्त हो और किसी मर्यादा का उल्लंघन भी ना हो प्रभु के वचन सुनकर अर्जुन ने विचार किया कि मुझे ऐसा कोई उपाय करना चाहिए जिससे अश्वत्थामा जीवित भी रहे किंतु उसके मस्तक के समान और मुझे ब्रह्म हत्या का पाप भी ना लगे तो उसने अश्वत्थामा का सिर मुड़वा कर अपने तलवार की नोक से उसके मस्तक को चीर कर वहां मारी निकाल ली जो हमेशा उसके मस्तक में रहती थी और उससे नगर निकाल दे दिया जीवित रहते हुए भी आ सुदामा विद के समान हो गया

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Shrimad Bhagwat Purana Sukhsagar Chapter 7 Beginning

Going to Badrinath and composing Shri Mantra Bhagwat Purana by Devarshi to Bihar ji, then going to Badrinath and composing Shri Mantra Bhagwat Purana, Suji said, Receiver, Devarshi Narad said to Ved Vyas ji, O Vyas ji, we have heard 4 people from our father Shri Brahma and Father Shri has been told about these four. The knowledge of this world was made by Narayan himself, so by expanding the four verses, write the praise of the glory of God, the glory of God can be known only by the living beings living in the human vagina, the animals and the birds cannot know, those who have attained a human body by meditating on Narayan's hymn. Having crossed the ocean of the ocean, his life is successful, who does not know about it, he wanders after studying in the cycle of lakhs of eighty-four yonis and blindness, being a victim of misery, remains away from salvation. It is said that Vyas ji wants you to first meditate on the feet of Brahma, when the miraculous form of the Lord has entered your heart because of Amita, then Narad ji, after saying so much to describe his story, left from there, stacking Shri Narayan Narayan. Then ya ji called the holy river Saraswa He went to the ti, took a bath and went to Badri's ashram and became absorbed in the meditation of Hari, his closed eyes saw a beam of light which became very bright and merged in his heart, then Vyas ji got the power, then told by Narad ji. Expanded all the four verses and created Shrimad Bhagwat Mahapuran and narrated it to his son Sukhdev, by reading and listening to which man attains the supreme position, freed from worldly bondage. Rajan gathered 1800 fighters in Kurukshetra and near Pandavas and fought for 18 days in extreme dhamasa, when Duryodhana was injured by Bhimsen and studied in the battle field, at the same time Drona's son and Sudama came and said from distant Gagan, both of you are friends. Having played together in childhood, today I am not able to bear seeing the misfortune you have done by your enemies, so I will do whatever you command me, after listening to Ashwatthama's words, Duryodhana has said, Child friend, I am not so sad to break my thighs. what is happening is sad It is a matter of victory for the Pandavas, whether the enemy should rule while you are there or it is a matter of great shame for you, Ashwatthama said if this is the case, then tonight will be the night of the death of the Pandavas, I will reveal the heads of those five and bring them in front of you. It is indecent to attack a sleeping human, yet I will do this complete work for you, but after reaching the mind of Ashwatthama, the Sudarshan Chakra holder should meditate and after reaching the Pandavas said, five of you brothers should set up your camp on the banks of Saraswati tonight. But let him rest for the night, on the same night, Ashwatthama took consent from Kripacharya, although Kripacharya explained to him that it would be a religion, but God did not believe in the pride of Lord Mahadev's boon and the Pandavas' camp after the night had passed. After reading the Rudra stotra, he set fire to the fields of the Pandavas, and entered the civil, beheading the five sons of Draupadi, who slept in the blood of the Pandavas, who themselves were similar in color to the full Pandavas, by bringing Duryodhana on their heads. hands over Call me friend, look at the severed heads of your enemies, I have given you my promise, Duryodhana was very happy and started pressing those heads in his hand, who put the head of our religion and healthy in the hands of Duryodhana, at the same time, Duryodhana was pleased. But by pressing on the same head, he got it as if Bhimsen does not have a head, he has said to Sudama that friend Bhimsen's head may not be such that it can be broken by pressing me, of course you have cheated someone else. Saying that he had stopped my dynasty from setting fire by killing the Pandava sons in deceit, he became sad and died at the same time, which was mentioned in his birth chart, Duryodhana was to die at the same time when he had to do something. Let him be very happy and in the south-east, he may suffer a great deal of grief, here, when Draupati came to know that his sons had been killed by Ashwatthama, then I would do a lot while Rudra said, I will not take food and water till Ashwatthama is killed, Arjuna. When Adi came to know that at 5 o'clock the girl took an oath. If you are very sad and Draupati said, O Aryaputra means yes Saugandh has eaten on your strength, you should do whatever you think is appropriate, after listening to Drapati, Arjun said in a serious voice, be patient, I am cutting off Ashwatthama's head and now you bring it on his head. Standing and chanting this name, he picked up his Gandhi and praying to Shri Krishna said, O Keshav Nath, take my night to Ashwatthama at a high speed or only after listening to it, Lord Shri Krishna ji reached Ashwatthama every night. Seeing them, Ashwatthama left the Brahmastra provided by Brahma on his bow and left it on Arjuna to protect his life. Having seen Arjun said, O Devkinandan, what kind of identity fire is rising towards me, listening to Arjuna, Krishna ji has said that Brahmastra is Arjun, from which Ashwatthama has run on you, you should also use Brahmastra so that it This fierce fire could not reach you. The Brahmastra left by Arjuna was stopping Sudama's Brahmastra, which Arjuna remained completely safe, after watching the war of weapons for some time, Shri Krishna said, "Arjun, you call both the weapons to you with the power of mantra, otherwise Due to their anger, all the moving powers of 20 and 20 would be confused, as soon as Arjuna got the order, Arjun did as he wanted and then caught Ashwatthama by moving the night forward, when Arjuna had caught Ashwatthama, the moment a thought emerged in his mind. Knowing the thoughts emerging in Arjun's mind, Lord Krishna said that Ashwatthama is a Brahmin and at the same time he is the son of a guru, it is not proper to kill him. you I also cut off his head, while describing Lord Leela to Rishu, Arjun said, at that time Arjuna said, O grace, your statement is true that killing a brahmin would be a grave iniquity. In the same way, Anant Lal also accepted Arjuna's words, then took Ashwatthama as a prisoner to Draupati and seeing Sudama's poor condition, Draupadi's female heart melted, she said to Shri Krishna ji, Oh Lord, you have fulfilled my promise If you do not kill this brahmin, it will be appropriate because my sons will not be alive by killing him, so you free me, just as I am suffering due to son's separation, in the same way his mother will also be sad after hearing Draupati's words. Said an Anuj Drapati is rightly saying that the killing of Ashwatthama will incur the sin of killing a Brahmin, but Bhimsen did not like the advice of all of them. While cutting Ashwatthama did not pay attention to the immorality, due to which the Brahmin or the It is written in the Natha religious texts that it is the religion of kings to give harshest punishment to the person who has come under the shelter of a sleeping child and a woman. The first comes in the category of unrighteousness, the first one who sets fire, the second one who disobeys the Guru's orders, the third he becomes a brahmin, the fourth he kills someone by giving seeds, the fifth by drinking alcohol and the sixth one who kills the living beings of his family. Keep it up, so that you definitely kill Ashwatthama, the scriptures also say the same thing, after listening to your elder brother, Arjuna came politely and said to Lord Krishna, Lord, what is right and what is wrong in your opinion, then Krishna ji Said the story of Bhimsen, keeping in mind the orders of Yudhishthira and the Vedas and scriptures, tell some such remedy, so that everyone gets happiness and there is no violation of any dignity, after listening to the words of the Lord, Arjun thought that I should take such a remedy which will help Ashwatthama. Even alive, but like his head and I am guilty of killing Brahma. Even if he did not incur sin, he shaved Ashwatthama's head and cut his head with the tip of his sword and took out the mortal remains which always resided in his head and removed the city from him. 


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